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( १५५ ) युवावस्था मे श्रमण हुये, जिसमे हर कोई आनन्द भोग भोगता है। आपको भोगोपभोग की सारी सामग्री सुलभ थी, फिर उसे आपने क्यों नहीं भोगा?" श्रेणिक का यह प्रश्न सामयिक था और उसके उत्तर मे जो वीर-वाणी खिरी वह आनन्द भोग के स्वरूप को स्पष्ट बताने वाली थी। उसका सार यू समझिये । "श्रेणिक | लोक की यही तो ग़लती है कि वह भोगों मेंइन्द्रिय वासनाओं की तप्ति मे आनन्द मानता है । भरी जवानी को दीवानी मानकर शरीर और आत्मा दोनो का अहित लोक कर डालता है। लोक मे सारे उपद्रव कामिनी और कंचन से ही होते हैं । फिर उसमे आनन्द कहाँ ? जो हेय और उपादेय को नहीं चीनते-मानव होकर मनन करना नहीं जानते, वही विषय-वासनाओं की पूर्ति में आनन्द पाने का धोखा खाते हैं। जो सार को सार-उपादेय जानते, और असार को असारहेय मानते हैं, वही सार को पाते है । लोक मे रस्सी या लोहे के बन्धन दीखते है, परन्तु वह दृढ़ बन्धन नहीं हैं । वस्तुतः दृढ़ बन्धन धन में रक्त होना, स्त्री में आसक्त रहना और पुत्र-सम्पत्ति की इच्छा करना है । इन इच्छाओं मे बंधा हुआ मनुष्य वधे हुए खरगोश की तरह चक्कर काटता रहता है- जन्म मरण के दुख उठाता है। इच्छाओं का-आशाओं का कभी अन्त नहीं है। जिस कामिनी के रूप पर प्राणी मोहित होता है, उसका अन्त जरा मे छिपा हुआ है । जिस शरीर की शक्ति पर मुग्ध हो पशु की भाति प्राणी अन्धा नाच नाचता है, वह मृत्यु का शिकार बनता है-सूखे काठ की तरह निष्प्रभ हो जाता है । धन-कंचन
और राज-पाट तभी तक सुहाता है जब तक कोई उसका दायी न हो ! इन्द्रियों की वासना पूर्ति आनन्द नहीं-आकुलता सिरजती है ! कुत्ता हड्डी चबाकर सुख मानता है-रोगी पुरुष खाज को खुजला कर आनन्द लेता है, परन्तु उनके परिणामों