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गले में डालकर चलते बने। रनवास में पहुँचकर उन्होंने यह सब बातें रानी चेलनी से कहीं वह एकदम मुनिराजकी वैयावृत्य करने की भावना से उठ खड़ी हुई । श्रेणिक ने अट्टहास करके कहा कि 'श्रव वह पाखडी मुनि वहाँ नही होगा!' चेलनी बोली, 'यह हो नहीं सकता। सच्चा अहिंसक वीर उपसगों से डरता नहीं। वह शात और अभय चित्त से उपसर्ग का सामना करता है। उपसर्ग करने वाले को उसकी ग़लती सूझ जाती है उनकी क्षमा और सहनशीलता से यदि नहीं सूझती तो निर्वैर भाव से वह अपने शरीर को उस उपसर्ग-ज्वाला की भेट कर देते हैं। मुनिवर यमधर एक ऐसे ही वीर है। वह अवश्य वहीं मिलेंगे !! श्रेणिक को कौतुहल हुआ। वह रानी के साथ हो लिया और जाकर देखा, मुनिराज उसी ध्यानमुद्रा में बैठे हुए हैं । उनके गले में सांप पड़ा है और लाखों चींटियां उनके शरीर से चिपटी हुई हैं। रानी ने शकर के सहारे से उन चींटियों को हटाया और मुनिराज का शरीर प्रक्षालन करके चन्दन का लेप कर दिया मुनिजी ने उपसर्ग टला जानकर समाधि छोड़ी। रानी ने नमस्कार किया, परन्तु मुनिराज ने राजा और रानी, दोनों को समभाव से 'धर्मवृद्धि'-रूप आशीर्वाद दिया । श्रेणिक जैन मुनि की इस क्षमाशीलता को देखकर दंग रह गया। उसका हृदय पश्चाताप और ग्लानि से भर गया- भक्तिपूर्वक उसने मुनिराज की वन्दना की और उनसे 'जैनधर्मका स्वरूप समझा। अव वह जैनधर्म का द्रोही नहीं रहा!
श्रेणिक महाराज ने जब यह सुना कि तीर्थकर महावीर का समोशरण विपुलाचल पर्वत पर आया है तो वह सपरिवार जिनेन्द्र की वन्दना करने गये । भक्ति पर्वक ज्ञातपुत्र महावीर को नमस्कार करके वह वोले, "प्रभो! यद्यपि आप एक युवक राजकुमार थे, फिर भी आपन मुनित्रत धारण किये । आप उस