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शाली जीव थे । वह दुख का नाम नहीं जानते थे । एक दिन वह दम्पति राजमहल की छत पर बैठे दिशाओं का अवलोकन कर रहे थे । रानी ने एक पुत्रवियोग के शोक में रोती चिल्लाती हुई दुखिया को देखा; पर वह न समझी कि वह शोकाकुल है । दासी से बोली, 'इस स्त्री की तरह नाचना-गाना मुझे भी बता । मैंने चौसठ कलायें सीखीं, पर यह कला तो अनूठी है !' दासी को सुनकर बुरा लगा - 'दुखिया का दुख दूर न करो तो उनका उपहास क्यों करो ?' पर रोहिणी तो दुख जानती ही न थी — बोली, 'दुख क्या होता है ?' राजा ने पुत्र को छत पर से फेंक दिया; परन्तु पुण्यवानों को दुख कैसे हो ? बच्चे को चोट न आई; रोहिणी यह देखकर अत्यधिक प्रसन्न हुई । वात आई गई हुई । एक दिन चम्पा के उद्यान में कुम्भ मुनीश का आग - मन हुआ । राजा-रानी उनको वंदने गये । धर्म सुनकर पूछा, रोहिणी के पुण्य की विशेषता क्या है ? मुनि विशेष ज्ञानी थेउन्होंने उनके पूर्वभव बताये । एक समय गिरि नगर में भूपाल राजा की रानी सिधुमती थी । एक मासोपवासी मुनि आहार लेने आये । राजा ने भक्ति से पड़गाहा, परन्तु रानी को यह न रुचा ! साधु तपोधन थे, पर भोगासक्त प्राणी उनके महत्व को क्या जानें ? रानी ने गुस्से से कड़वी लौकी उनको खिलादी ! धीर-वीर मुनि ने समताभाव से उस विषाक्त साग को खा लिया और सन्यासमरण किया। लोगों ने कहा, कडुवी लौकी का
हार रानी ने देकर बुरा किया | वह था भी अकृत्य ! राजा ने उसे देश निर्वासन का दंड दिया । वह भटकती हुई रौद्र भावों सेमरी और दुर्गति के दुख भुगतती फिरी । आखिर किसी पुण्यवशात् वह चम्पा में सेठ धनमित्र के कन्या हुई; परन्तु उसके शरीर से ऐसी दुर्गन्ध आवे कि कोई उसे पास न खड़ा होने दे | लाख जतन किये पर वह दुर्गन्ध न गई । भाग्यवशात्.