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अपना ज्ञान और तप धन बढ़ाने में लीन रहते थे । वह वाह्य जगत से बिल्कुल निर्लिप्त थे - किसी का निमन्त्रण तक स्वीकार नहीं करते थे और न शरीर की स्थिरता के लिये किसी से भिक्षा मांगते थे । वह नियमित वेला पर नगर मे जाते थे और जो कोई विधिपूर्वक उनको आहार देता था, उसे लेते थे । वह आहार उनके लिये खास तौर पर नहीं बनाया जाता थागृहस्थी मे जो नित्यप्रति आहार बनता हो उसीमे से अकस्मात पहुँच कर ले लेते थे । उनकी भ्रामरी वृत्ति थी । कहा भी है:" जहा दुम्मस्स पुप्फेसु भमरो आवियइ रसम् ।
य पुष्कं किलामेइ सो अ पीरणेइ अप्पयम् ॥ एमेए समरणा मुत्ता जे लोए संति साहुणो । विहगमा व पुप्फेसु दारणभत्तेसणारया ॥” अर्थात् - जिस प्रकार द्रुमों - वृक्षों पर फूले हुये पुष्पों से भ्रमर रस संचय करता है और रस को पीते हुये पुष्पको जरा भी पीड़ा नहीं पहुँचाता, उसी प्रकार समस्त मोह-ममता से मुक्त सच्चे साधुओं का व्यवहार है । जैसे भ्रमर पुष्पों के रस संचय करने से सन्तुष्ट होता है वैसे ही साधु भी विधिपूर्वक मिले हुये दान से सन्तुष्ट होते हैं ।
साधु जीवन का शुद्ध- निर्वाह श्रावक संघ पर ही अवलम्बित है । इसी कारण वीरसंघ मे श्रावक-श्राविकाओं को भी सम्मिलित किया गया था । बौद्धसंघ की तरह भ० महावीर ने गृहस्थ उपासकों को भुला नहीं दिया था । श्रावक संघके अग्रणी शंख या शतक नामक व्यक्ति थे और गृहस्थ उपासिकाओं मे सुलसा और रेवती प्रसिद्ध थीं । श्राविका जयन्ति भी विशेष भक्त और खूब विदुषी महिला थी | कहते हैं कि उसने भ० महावीर से १. यह नाम श्वेताम्बरीय शास्त्रानुसार हैं | देखो चंभमा, पृ० १७६
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