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________________ ( १४६ ) शङ्का-समाधान किया था। इस प्रकार हम देखते हैं कि साधुसाध्वी संघों से श्रावक-श्राविकाओ के सघों का निकट सम्बन्ध था। वे एक दूसरे के उपकारी थे। गृहस्थ-श्रावक जहाँ मुनिप्रायिकाओं के शरीरों को स्थिर रखने में सहायक थे, वहाँ मुनिआर्यिका श्रावक-श्राविकाओं को लौकिक और वार्मिक शिक्षा देकर उनकी आत्माओं का कल्याण करते थे। श्रावकों के जीवन बम की वासना मे रगे हुये थे और वे इतने ज्ञानवान थे कि स्वय अपना आचार विचार शुद्ध रखते थे, किंवा कोई साधु सन्मान से भटकता दिखता था तो उसे भी दृढ़ कर सुधार देते थे। इसका अर्थ यह हुआ कि साधसंघ का एकाधिपत्य शासन नहीं था, वल्कि श्रावकों का भी नियंत्रण संघव्यवस्था में कार्यकारी था। इस वैज्ञानिक व्यवस्था का ही यह सुफल है कि आज भी महावीर संघमे प्रायः वही व्यवस्था विद्यमान है। उस समय तो उसने बड़े २ राजाओं और पंडितों को भी नमा लिया था। सभी जाति ओर वर्ग के लोग जैनसंघमे सम्मिलित हुये थे । शतानीक, चेटक और उदयन सहश राजा, अभयकुमार, वारिषेण आदि तुल्य राजकुमार और इन्द्रभूति गौतम आदि अनेक ब्राह्मण विद्वान् दि० मुनि हुये थे। चन्दना, ज्येष्ठा प्रभति अनेक राजकुमारियाँ अजिंकायें हुई थीं। अजिंकायें विदुषो और तपस्वी थीं। वे एक गाढ़े कपड़े की सफेद साड़ी पहनकर ही गरमीसरदी के परीषह सहन करती थीं। मुनियों की तरह ही कठिन व्रत-संयम और आत्मसमाधि का अभ्यास करती थीं। अपने १. कथा ग्रंथों में ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं, जिनसे इस व्याख्या की पुष्टि होती है। उदाहरण स्वरूप श्रेणिक म० की कथा को लीजिये। उन्होंने एक मुनि को सम्बोधा ही था, जिसे उन्होंने एक धोबी से लड़ता हुमा देखा था।
SR No.010164
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Parishad Publishing House Delhi
PublisherJain Parishad Publishing House Delhi
Publication Year1951
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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