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समुदार नियम बने हुये थे, जिनका पालन यथोचित रीति से किया जाता था । कदाचित् कार्यशात् कोई मार्गभृष्ट होता था, तो उसे संघ की समुपस्थिति में प्रायश्चित कर उसे पूर्वपद पर स्थापित कर देते थे । सात्यकि मुनि और ज्येष्ठा आर्यिका के उदाहरण उल्लेखनीय हैं। वैसे सब ही मुनि-आर्यिका धर्म नियमोंका पालन बड़ी सतर्क दृष्टि और विवेकभाव से करते थेहर कोई ज्ञान-ध्यान और तपश्चरण में लीन रहता था। भावों तक मे निर्मलता रखते थे। उन्होंने आखिर संसार त्याग भौतिक प्रयासों और प्रलोभनों को असार जान कर ही किया थाअपनी उगली हुई वस्तु को वह पुन कैसे गहण करते ? आशापिशाचिनी को उन्होंने नष्ट कर दिया था। वह कर्म-बन्धन से मुक्त होने के लिये हर समय आत्मस्वरूप के चिन्तवन मे लीन रहते थे। मुनि के अट्ठाईस मूल गुणों को पालते थे हमेशा नग्न रहते थे और उद्यानों में रह कर ही अपने ज्ञान अनुभवो और सिद्धियों से लोक का 'उपकार करते थे और स्वयं अपनी आत्मा की उन्नति करते जाते थे। नगर-ग्रामों के बाहर मुनिजनों की ज्ञान गोष्ठियाँ होती थीं उनमें केवल शुष्क तत्वज्ञान ही नहीं निरूपा जाता था, बल्कि लौकिक जीवन की उलझी गुत्थियों को सुलमाने के लिए भी चर्चा वार्ता हुआ करती थीं। बहुत से मुनि
और आर्यिकाये वाद-प्रवाद-काल में निष्णात थे-वे नगरों मे जाकर अन्य मतावलम्बी दिग्गज आचायों से वाद करते थे। चू कि श्रावक संघ उनका भक्त था-वह उनके ससर्ग में रहकर ज्ञानसंचय करता था। उपाध्याय मुनि और आर्यिकायें श्रावकों के वालक-बालिकाओं को ब्रह्मचर्य पालन कराते हुये उन्हें योग्य शिक्षा और दीक्षा देते थे। इसलिये ऐसे २ श्रावक भी मौजूद थे, जो अच्छे २ विद्वानों से तात्विक चर्चा और वाद करते थे। ग़ज़ यह कि साधु-साध्वी निरन्तर ज्ञान का उद्योत करने और