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( १४३ ) (E) मैत्रेय और प्रभास कौंडिन्य गोत्र के थे। दोनों के संयुक्त
गण में ३०० मुनि थे । (कल्पसूत्र J. S. I. 265 )
अतः श्वेताम्बर मतानुसार महावीरजी के ग्यारह गणधर, नौ वृन्द (गण) और ४२०० श्रमण मुख्य थे। इनके सिवाय
और बहुत से श्रमण और अजिंकायें थीं, जिनकी संख्या कम से चौदह हजार और छत्तीस हजार थी। श्रावकों की संख्या १५०००० थी और श्राविकायें ३१८००० थीं।
श्री गुणभद्राचार्य जी ने 'उत्तरपुराण' ( पर्व ७४) मे वीरसंघ के मुनियों, आर्यिकाओं और अन्य भक्तों के विषय मे लिखा है कि "श्री वर्द्धमान के इन्द्रों के द्वारा पूज्य ऐसे ग्यारह गणधर हुए। इनके सिवाय तीन सौ ग्यारह अंग चौदह पूर्वो के जानकार थे। ६६०० वास्तविक संयम को धारण करने वाले शिक्षक मुनि थे, १३०० अवधिज्ञानी थे, ७२० केवलज्ञानी अरहंत परमेष्ठी थे । ६०० विक्रिया ऋद्धि को धारण करनेवाले मुनिराज थे और पांच सौ पज्य मन'पर्यय ज्ञानी थे। तथा चार सौ अनुत्तरवादी थे । इस प्रकार सब मुनीश्वरों की संख्या १४००० थीं। इसी प्रकार ३६००० चन्दना आदि अर्जिकाएं थीं, एक लाख श्रावक थे, तीन लाख भाविकायें थीं और असंख्यात देव-देवियाँ थीं।" २ सौभाग्यशील अनेक तिर्यंच भी वीरसंघ में आत्मसुखाय उपस्थित रहते थे। आखिर भगवान् का समोशरण समस्त लोक भुवनाश्रय ही तो था!
चतुर्विध महावीर संघ का धार्मिक शासन गणधरों अथवा गणाचार्यों के आधीन था; तथापि आर्यिकासघ का नेतृत्व सतीसाध्वी चन्दना को ही प्राप्त था। संघ की व्यवस्था के लिये
१. चंभम०, पृ० १८१ २. उ०पु० पर्व ७४, श्लोक ३७३-३७६