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( १४२ ) ज्ञान (Clairovoyance ) के धारी थे-वे अपने विशेष ज्ञान से पूर्व जन्मों और दूरदेशों की बात बताते थे। पांच सौ मुनिगण धी पर्यायज्ञ-चार ज्ञान के धारी थे। नौ सौ साधुगण वैक्रियक ऋद्धि के धारी थे-वह मनचाहा रूप धारण करने को समर्थ थे। शताधिक योगीजन शिज्ञक थे । वे शिष्यों को ज्ञानदान देने वाले उपाध्याय थे। सात सौ मुनिराट केवलज्ञानी थेवह भी सामान्य रूप में सर्वज्ञ और सर्वदशी थे। साधारण मुनि ६६०० थे। किन्तु श्वेताम्बरीय आम्नाय मे वीरसंघ नौ गणों में विभक्त निम्न प्रकार बताया है(१) प्रथम मुख्य गणधर इन्द्रभूति गौतम, गौतम गोत्र के थे और
उनके गण में ५०० श्रमण थे। (२) दूसरे गणधर अग्निभूति भी गौतम गोत्र के थे। उनके गण
में भी ५०० मुनि थे। (३) तीसरे गणधर वायुभति भी
भाई थे। इनके गण में भी ५०० मुनि थे।। (४) आर्य व्यक्त चौथे गणधर भारद्वाज गोत्र के थे, जिनके गण
में भी ५०० श्रमण थे। अग्नि वैश्यायन गोत्र के पांचवें गणधर सधर्माचार्य थे, जिनके आधीन भी ५०० श्रमण थे। (६) मण्डिकपुत्र अथवा मण्डितपुत्र वशिष्ट गोन के थे और
२५० श्रमणों के योगचार्य का नियन्त्रण करते थे। (७) मौर्यपुत्र काश्यपगोत्री भी २५० मुनियों के गणधर थे। (८) अकम्पित गौतमगोत्री और हरितायन गोत्र के अचल व्रत
दोनों ही साथ २ तीन सौ श्रमणों का पथप्रदर्शन करते थे। हरि० पृ. २०