________________
(
१४१ )
गौतम आदि पांच गणधरों के मिलकर सब शिष्य दश हजार छै सौ पचास और प्रत्येक के दो हजार एक सौ तीस २ थे।
ठे और सातवें गणधरों के मिलकर सब शिष्य आठ सौ पचास और प्रत्येक के चार सौ पच्चीस २ थे। शेष चार गणधरों में प्रत्येक के छ सौ पच्चीस २ और सब मिलकर ढाई हजार थे। एवं सब मिलकर चौदह हजार थे॥४५-४६॥"
इस वर्णन से प्रकट है कि पहले के पांच गणधर अलगअलग एक २ गण की सारसम्भाल करते थे । परन्तु छठे और सातवें गणधर मिलकर एक गण की व्यवस्था रखते थे और अन्त के चार गणधरों का भी एक संयुक्त गण ढाई हजार मुनियों का था। कुल ग्यारह गणधर सात गणों की सार-संभाल करते थे। श्रवणवेल्गोल के शिलालेख नं० १०५ ( २५४ ) मे स्पष्टत. वीरसघ मे सात गणों का उल्लेख है । इन गणों के मुनिगण महान तपस्वी, महाविद्वान् और महिमा सम्पन्न लोकोद्धारक थे। उनमें तीन सौ मुनिगण तो अङ्ग-पूर्वगत ज्ञान के जानने वाले थे-जैन सिद्धान्त श्रुत के पारगामी थे। नौ सौ मुनिगण अनुत्तरवादी थे-उनके तर्क, न्याय और वक्तत्व शक्ति के सामने कोई टिक नहीं सकता था ! तेरह सौ मुनिगण अवधि
.."तस्याभवन् सदसि वीर जिनस्य सिद्धसद्ध यो गणघरा: किन
_____ रुद्र सट स्याः । में धारयन्ति शुभदर्शन बोधवृत्ते मिध्यानयादपि गणान् विनिवार्य
_ विश्वान् ॥१॥ पूर्वशानिह नादिमोऽवधिजषो बीपर्यय ज्ञानिन:--सेवे क्रिम
काश्च शिक्षक-यतीकैवस्यमाजोऽप्यमन् । इस्पग्म्यम्बुनिधिनयोसर निशानाथास्तिकायश्शते-दोनेावा. पतरपि-मितान्सप्व-निस्य गणान् ॥६॥"-जै०शि०सं०, . 18