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________________ ( १४०) 'कल्पसूत्र' (JS. Pt. I ) में वीरसघ के चारो अंगों का उल्लेख है। श्वेताम्बराचार्य श्री हेमचन्द्र भी भ० महावीर का. संघ चतुविध-रूप ही बताते हैं ! (निपसाद यथास्थान संघस्तत्र चतु विधः।-परि० पर्व १) उधर बौद्ध ग्रंथों में भी भगवान के संघ मे निम्रन्य मुनियों के अतिरिक्त श्वेतवलधारी एकशाटक गहत्यागी उत्कृष्ट श्रावकों और जुल्लिकाओं के अस्तित्व सूचक उल्लेख मिलते हैं। वौद्ध ग्रन्थ 'दीघनिकाय' से यह भी स्पष्ट है कि,भ. महावीरजी का अपना संघ था, जो गणों में विभक्त था क्योंकि उसमे भगवान को सघ और गण का आचार्य लिखा है। (निगन्ठो नातपत्तो संघी चे व गरणी च गणाचार्यो च )। श्री जिनसेनाचार्यजी के कथन से यह स्पष्ट है कि वीरसंघ में गणभेद विद्यमान था । उन्होंने लिखा है कि "भगवान के इन्द्रभूति, अग्निभूति, वायुभूति, शुचिदत्त, सुधर्म, मांडव्य, मौर्यपत्र, अकम्पन, अचल, मेदार्य और प्रभास ये ग्यारह गणवर थे। ये समस्त ही सात प्रकार को ऋद्धियों से सम्पन्न और द्वादशांग के वेत्ता थे ॥४०-४३॥ तम, दीप्त आदि तपद्धि (१), चतुर्वद्धि विक्रिया (२), अक्षीणद्धि (३), औषधि (४), लब्धि (५), रस (६) और बल ऋद्धि (२०) ये सात ऋद्धियां हैं ॥४७॥ 'दोषनिकाय' (मा० ३ पृ. 110-110) में म० महावीर के निर्वाणोपरान्त निर्मन्य मुनियों के परस्पर विवाद करने का उक्लेस है, जिसे देखकर सघ के प्रावक दुखी हुये थे । गृहत्यागी उत्कृष्ट श्रावक 'एक्शाटक' कहलाते थे। वुघोष ने इन्हें एक वसधारी-लंगोटी या खंट चेलघारी कहा है। ( मनोरथ पूरिणी ३) 'येरीगाथा' में ऐसे उस्लेख है, जिनसे पता चलता है कि आर्यिकानों के अतिरिक गृहस्यागी उत्कृष्ट प्राविका (बुल्लिका) भी वीरसंघ में थीं। (भमवु०, पृ. २५८-२१६)
SR No.010164
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Parishad Publishing House Delhi
PublisherJain Parishad Publishing House Delhi
Publication Year1951
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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