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के भक्त हुए थे फणिक ( Phoenccia ) देश के वणिक भी जिनेन्द्र महावीर के भक्त थे | भगवान के समवशरण मे ही वहाँ के एक व्यापारी ने मुनित्रत धारण किया था । भारत मे जब वह गंगानदी पार कर रहे थे, तव आधी-पानी के आने से नाव उलट गई, परन्तु इन धर्म-वीर ने डूबते २ कर्मों का नाश करके मोक्षपद पाया था
सारांशत भ० महावीर का अन्तिम जीवन निरन्तर लोककल्याण के लिये सम्यकज्ञान और अभय दान की पुनीत सुखधारा वहा देने मे व्यतीत हुआ । एक हजार आठ आरों वाले चमचमाते रत्नमई धर्मचक्र के साथ ही इन्द्र भगवान् के अहिंसा धर्म का--गऊसिंह को प्रेमसूत्र में गुम्फित करके समता और मैत्रीभाव सिरजाने वाला जिनेन्द्र-ध्वज ( झंडा ) लिये वीरविहार में आगे २ चलता था । नर-सुरासुरों के अतिरिक्त मुनिआर्यिका श्रावक-श्राविका रूपी चतुर्विधि संघ भी विहार मे साथ होता था । योगिराट् तीर्थंकर महावीर की पुण्यधारा चहुँ ओर महीमे सुख-शान्ति विस्तार देती थी । प्रकृति नव उल्लास में थिरकने लगती थी । संसार के प्राणी स्वत समझ जाते थे, उनका त्राण कहाँ है ? उनको शरण कहाँ मिलेगी ? और वह भगवान् महावीर के चरणों में आकर नतमस्तक होते थे । अतः स्वामी समन्तभद्राचार्यजी ने यह ठीक ही कहा है कि प्रभु वीर | आपका अहिंसा और अभयदान सहित उत्तम विहार लोकोपकार के लिये ही हुआ ।
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