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(१५) चतुर्विध वीर-संघ और निम्रन्थ-गुरु 'अथ भगमन्सम्मापद्दिव्यं वैभार पर्वतं रम्यं । चातुर्वर्ण्य-संघस्तत्राभूद् गौतमप्रभूति' ॥१३॥
-निर्वाणभक्ति जिस समय भगवान महावीर केवलज्ञानी होकर वैभार पर्वत पर पधारे और उनके उपदेश को सुनकर इन्द्रभति, वायुभति और अग्निभति नामक वैदिक-धर्मानुयायी ब्राह्मण जैनधर्म मे दीक्षित हो गये, उस समय संघ की व्यवस्था की जाना आवश्यक हुई। किन्तु भ० महावीर की उदासीन वृत्ति थी । उन्होंने इच्छा को जीत लिया था और उन्हें यह खयाल स्वप्न में भी नहीं हुआ था कि वे अपने अनुयायियों की संख्या बढ़ाने का प्रयत्न करें। वह तो उस आध्यात्मिक परिपर्णता की परमोच्चदशा को प्राप्त हो चुके थे जिसमे मोह और लोभ नहीं, दर्शन और ज्ञान ही दैदीप्यमान होते है। और यह प्रकृत सुलभ है कि दर्शन और ज्ञान के जीवित प्रकाश पुञ्ज के सम्पर्क मे जो भी भाग्यशाली प्राणी आवें, वे स्वयमेव उनसे प्रभावित होवेवस्तुतः उनकी आत्मा का हित सध जावे और वे भगवान् के भक्त बन जावे-उनके सम्पर्कको कल्याणकारी माने । भगवान ने ससार के सम्मुख सुख प्राप्ति के मूल साधन स्वरूप सम्यगदर्शनज्ञान-चारित्ररूपी रत्नत्रय का पिटारा रख दिया था। वह पिटारा चिन्तामणि रत्न की तरह ही मुमुनुओ को इच्छित फल को देने वाला था। उसमे यह विशेषता थी कि वह हमेशा रहने वाली चीज है-शाश्वत है ! जो सुख चाहे वह उससे लाभ उठाये और
१. भ. महावीर के विहार विषयक देशोके परिचर के लिये परिशिष्ट
नं० २ देखो।