________________
(१४) धर्म प्रचार और विहार "गिरिभित्यवदानवतः श्रीमत इव दन्तिनः
-श्रवदानवतः तव शमवादानवतो गत मूर्जितमपगत प्रभादानवतः ।।
-श्री वृहस्वयमस्तोत्र" स्वामी समन्तभद्राचार्यजी ने भ० महावीर के पुण्यमई विहार की विशिष्टता को उपयत श्लोक में अमर बना दिया है। वह कहते हैं कि, "हे वीर जिधर आपका विशिष्ट विहार हुआआपके चरण स्पर्श से जो पथ्वी भाग सौभाग्यशाली वना, वहाँ दोपों का उपशम हुआ~शास्त्रज्ञान का विकास हुआ और हिंसा का सर्वथा नाश हुआ! इसी कारण आपका अहिंसाव्रत और अभयदान सहित उत्तम विहार उस तरह हुआ, जिस तरह सम्पूर्ण भद्र लक्षणों सहित मरते हुये मद वाले हाथी की गति होती है, जिसे पर्वतीयभित्तिका अवदान प्राप्त है।"
निस्सन्देह तीर्थकर महावीर का विहार आकुलता और भय क्षोभ की जननी हिंसा का नाशक और सुखवद्विनी अहिंसा का पोषक था । अहिंसक राज्य मे ही प्राणीमात्र अभय रह सकता है-सुख की नींद सोता है। भ० महावीर के विहार में अमित अभयदान स्वयमेव वॅटता था । अहिंसक वातावरण में वैर और विरोध के लिये स्थान नहीं रहता-सभी प्राणी अभय होते हैं। इस प्रकार भगवान का यह शेप जीवन विहार और धर्म प्रचार में व्यतीत हुआ। लोक कल्याण के अपर्व ध्येय का उन्होंने मूर्तिमान कर दिखाया । वह इच्छा के प्रेरे हुये नही चलते थे, क्योकि इच्छा को उन्होंने जीत लिया था। और न दूसरों की इच्छापूर्ति के लिये उनका विहार होता था। किसी की स्तुति और निन्दा से
ध्येय का
को उन्होंने यह इच्छा के