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( १२१ ) भोगते समय जैसे अपराधी अपने पुत्र-कलत्र के पास नहीं जा सकता उसी तरह नारकी जीव अपनी बरी करनी का दण्ड भगतता है और वहाँ से तब तक नहीं निकलता जब तक कि वह उसका पूरा फल नहीं भोग लेता। प्रदेशी बोला, 'अच्छा, यह तो माना किन्तु, मेरी धर्मात्मा दादी स्वर्ग में गई है, वह मुझे सम्बोधने क्यों नहीं आती ?' उसने उत्तर में सुना कि 'जो मनुप्य देवदर्शन के लिये शुद्ध होकर मन्दिर मे गया है, वह अशुद्वि के भय से दूसरे काम के लिये बुलाये जाने पर भी नहीं जाता | देवपर्यायके जीव बहुत साफ सुथरे हैं । उन्हे मनुष्य की अशुचिता असह्य है। इसीलिये उपरोक्त भक्त पुजारी की तरह वह भी नहीं आते । किन्तु किन्हीं जीवों का पारस्परिक मोह प्रबल होता है और वे अपने इष्टमित्र का उपकार करना चाहते है तो कष्ट सहकर भी आते हैं। संसार मे ऐसे उदाहरण कभी कभी देखने को मिलते हैं। शास्त्रों में लिखा है कि सीताजी का जीव अपने एक प्रिय बन्धु को सम्बोधने नर्क में भी गया था।' प्रदेशीको इस उत्तर से संतोष हुआ जरूर, परन्तु शका न पिटी। उसने फिर पूछा, 'अच्छा, बताइये, एक बन्दी को प्राणदण्ड मिलता है - उसे सन्दूक मे बन्द कर दिया जाता है, परन्तु मरते हुए उसकी आत्मा नहीं दिखती। यदि आत्मा है तो वह अवश्य दीखती !' उसे उत्तर मिला-'राजन् । महल के भीतर सब किवाड़ों को वन्द करके जब संगीत की मधुर लहरी छेड़ी जाती है, तब उसे महल के बाहर निकलते हुये कोई नहीं देखता, परन्तु वह निकलकर श्रोताओं के कानों से टकराती और उन्हे आल्हादित करती है। सूक्ष्म शब्द तो पार्थिव है, फिर भी नेत्रों से नहीं दिखता । अब जरा सोचो, अरूपी आत्मा नेत्रों से कैसे दीखेगी ?' राजा चुप था, परन्तु उसका दिल अभी नहीं नमा था। उसने फिर पछा, 'मनुष्य शरीर के टुकड़े २ करके उन्हे