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एक ऐसे सन्दूक मे बन्द कर दिया, जिसमे कोई वस्तु भीतर प्रवेश नहीं कर सकती, तो वताइये उसमे सड़ कर कीड़े पड़ने पर जीव कहाँ से आजाता है ? ऋषि इस सरल हृदयता पर मुस्कराया और बताया, "भलते हो. रानन् जब आत्मा निकलते हुये नहीं दीखती तो प्रवेश करते हुए कैसे दिखाई देगी लोहपिंड में कोई द्वार नहीं होता यह निरा ठोस है, परन्तु उमे जरा तपाओ और देखो अग्नि-कण उसमें प्रवेश कर गये हैं । अत. आत्मा के अस्तिस्त्र में शङ्का करना व्यर्थ है।' इस प्रकार जीव तत्व के साथ ही अजीव (पुद्गल-Matter) तत्व की सिद्धि होती है !
श्रोताओं ने उसे ठीक समझा और देखा कि आत्मा और पुद्गल मिश्ररूपमें दुनिया में फैले हुये हैं। मनुष्य-पशु पक्षीवनस्पति-आदि नाना रूप मे वह ससार के सुख-दुख भुगतते है । इस संसण का कारण क्या है और उससे मुक्ति कैसे हो ? कैसे लोक के प्राणी सुखी होवे ? यह प्रश्न उस समय की जनता के सम्मुख थे। इन्द्रभूति के निमित्तसे धर्म को प्रतिपादते हुये सर्वज्ञ प्रभु ने इसका समाधान निम्नलिखित शब्दों में किया था
"हे भव्य पुरुषो! अनादिकाल से पुद्गल के बन्धन में पड़ा हुआ-शरीर में कैद हुआ जीव शुभाशुभ कर्म कर रहा है। जीव ने पूर्व जन्ममें कर्म किये हैं और इस जन्म में भी कम संचित कर रहा है। इन संचित कर्मों का शुभाशुभ फल वह स्वयं भगतता है और सुखी-दुखी बनता है। यदि व्रतोपवास
और तपस्या के द्वारा जीव इन कमों की निर्जरा कर डाले तो शरीर वन्धन से मुक्त हो नावे । मन, वचन, काय द्वारा यदि जीव संवर पाले तो पाप कर्म नहीं बंधते और तपस्या से सचित कमां का नाश होता है। इस प्रकार नये कर्मों के (आस्रव ) रुक जाने से और पराने कमों के ज्ञय (निर्जरा ) हो जाने से संसार