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( १२० ) है। वह अखंड पदार्थ ही आत्मा है। आत्मा जानता देखता हैशरीर जानता देखता नहीं है। __सबने कहा 'तथास्तु' और आगे सना कि 'यह शङ्का करन भी व्यर्थ है कि आत्मा पहले नहीं था आगे नहीं होगा । यदि जीवात्मा अनादिकाल से लोक में भ्रमण न करता होता अथवा यौं कहिये कि वर्तमान जीवन के पहले उसका कोई जीवन नहीं था, तो जरा सोचो, पूर्व संस्कारों का सद्भाव मनुष्य जीवन में कैसे होता है ? कैसे एक नवजात शिशु माता का स्तन पाते ही उसका दुग्ध पान करता है। यह सब कुछ जीवों के पूर्व सस्कारों का ही प्रभाव है कि जीव उनका अभ्यन्त हो जाता है और विभाव को बनाता है। शिशु के मुंह में नारगी का मीठा रस निचोड़िये-वह उसके स्वाद और रूप को मनमें धारण कर लेता है। दूसरे दिन जव नारंगी को वह शिशु देखता है तो उसके मुंह में पानी भर आता है। अत यह स्पष्ट है कि मन, नेत्र, रसना आदि इन्द्रियों के द्वारा होने वाले अनुभव का ज्ञाता एक ही व्यक्ति है और वह अखड आत्मा है।'
इन्द्रभूति भगवान् के जीवतत्व ज्ञापक उपदेश को निर्निमेष सुन रहे थे। दिव्यध्वनि मे उन्होंने यह भी सुना कि 'पूर्वकाल में एक प्रदेशी नाम के राजा को भी आत्मा के अस्तित्व में शङ्का हुई थी, परन्तु उनकी शङ्का को तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ की परम्परा के पिजनों ने समाधान किया था। राजा प्रदेशी के प्रश्नोत्तर साधारण मानव हृदय का समाधान करते हैं-जरा देखो उस प्रश्नोत्तर को । राजा प्रदेशी पूछता है कि 'मेरे पिता निर्दयी थे और मर कर नर्क गये, जहाँ वह दुख भुगतते हैं फिर उन दुखों से वचने के लिये वह मुझे सम्बोधने क्यों नहीं आये ?' ऋषि ने उत्तर दिया, 'राजा अपराधी को दंड देता है-उस दंड को