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देही 'आत्मा' को नहीं देखा है । फिर यह कैसे मानें आत्मा है - जीव है !"
प्रभूवीर की दिव्यध्वनि में गौतम के इस प्रश्न का समाधान सुनने के लिये सभी मुमुक्षु आतुर थे । उन्होंने जो सुना उसका भाव था कि 'यद्यपि स्थल नेत्र से आत्मा दिखाई नहीं देती, क्योंकि वह रूप-रस-गंध-वर्ण रहित है, परन्तु मानवी अनुभव उसका अस्तित्व प्रमाणित करता है । निःस्सन्देह गौतम, देह से वह विज्ञानमई चेतन भिन्न है - वह देह की, पंचभूतों की उपज नहीं है । कदाचित् उसे जल-पृथ्वी- वायु अग्नि और आकाश से मिलकर बनता अनुमान करो तो जरा यह तो सोचो कि इन पदार्थों में कौनसा पदार्थ ऐसा है जिसमे चेतना - जानने देखने का गुण मौजूद है ? जब चेतना इनमें नहीं है, तो इनके मिश्रण में कहाँ से आयेगी ? विश्व मे जो वस्तु है उसका कभी नाश नहीं होता और जो वस्तु नहीं है उसका कभी अस्तित्व नहीं हो सकता ।' श्रोतागण मंत्रमुग्ध की तरह भ० की इस सरल एवं स्पष्ट वाणी को सुनते रहे । उन्होंने जो आगे सुना उससे समझा कि शायद कोई यह शंका करे कि देह के साथ मृत्यु समय 'देही' (आत्मा) का नाश होता ही है, तो यह मिथ्या है | देह पुद्गल और देही चेतन है। शव का अग्नि संस्कार होने पर भी पुद्गल पुद्गल ही रहता है और चेतन लोक मे दूसरा शरीर धारण कर लेता है । यदि यह न मानें तो भला सोचो हमारा व्यवहारिक अनुभव क्या हो ? पंचभूतों के अशों का ही परिणाम यदि चैतन्य - भाव ( दर्शन - ज्ञान ) हो, तो वह अखंड कहाँ से होगा ? वह तो उतने ही अंशों में बंटा होगा -तब हमें बाहरी जगत का अनुभव एकरूप नहीं - एक साथ ही अनेकरूप होगा ! परन्तु मनुष्य का अनुभव ऐसा नहीं है - वह एक है और अखंड है । अतएव वह एक अखंड पदार्थ का ही अनुभव
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