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भव्योत्तम महापुरुष थे । महती पुरयफल उनके उदय में था । वीर प्रभू के सदर्शन से उन्हें सद्दष्टि मिल गई उनका मिथ्यात्व काफूर हो गया । उन्होंने भ० को साष्टांग नमस्कार किया । यह दिव्य घटना ई० सन् से लगभग ५७५ वर्ष पहले की है। उस ने समय इन्द्रभूति की अवस्था पचास वर्ष की थी। भगवान् आते ही उनका नाम लेकर सम्बोधन किया और कहा, "इन्द्रभूति ! तुम्हारे हृदय में यह शंका वर्त रही है कि जीव है या नहीं । वेदों में पूर्वापर विरोधी उल्लेखों को देखकर ही तुम संशय मे पड़े हुये हो ! किन्तु निश्चय जानो कि जीव द्रव्य हैउसका सर्वथा अभाव न कभी हुआ, न है और न होगा ।" भगवान् को इस तरह अपनी मनोगत सूक्ष्म शङ्का का उल्लेख करते हुये देखकर इन्द्रभूति का हृदय भक्तिभाव से गद्गद् हो गया । उन्होंने अपने अग्निभूति और वायुभूति भाइयों और शिष्यों सहित जैनेन्द्री दीक्षा धारण करली ! वे सब दिगम्वर जैन मुनि हो गये । भ० महावीर के सम्पर्क से उनका उद्धार हुआ । अनादि मिथ्यात्व का विनाश करके ही प्राणी अपना उद्धार और लोक का कल्याण कर सकता है । वह संसार में कैसी ही दुरवस्था में क्यों न पड़ा हो काल लब्धि को पाकर वहु अपनी उन्नति करता ही है । इन्द्रभूति और उसके भाई धर्म के नाम पर अपार हिंसा कर रहे थे और जातिमद में वेसुध थे; परन्तु भ० महावीर ने उनमें योग्य पात्रता पाई और दीक्षा दी । उन्होंने बता दिया कि वीर सघ की अभिवृद्धि नये २ पुरुषों को जैनी बनाकर ही की जा सकती है !
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भगवान् महावीर की स्तुति करके उन नवदीक्षित महाभागने शङ्का को दुहराया । वह वोले, "ज्ञानधन । देह के साथ देही का अन्त होते भासता है । किसी ने भी आज तक आँखों से उस
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