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( ११७ ) रचा। उसने अपना भेष वदला, एक वृद्ध विद्यार्थी के रूप में वह गौतम के पास पहुंचा और बोला कि “महाराज! मेरे पज्य गुरु ने एक श्लोक मुझे बताया है, परन्तु उसका अर्थ बताने के पहले ही वे ध्यानलीन होगए है। अब इस श्लोक का अर्थ मुझे कोई नहीं बता सकता। मैंने आपकी विद्वत्ता की महिमा सुनी है आप वेद-वेदांग-पारङ्गत विद्वान् है। क्या मैं आशा करूँ कि आप उस श्लोक का अर्थ बताकर मेरी अशान्ति को मिटायेंगे?" इन्द्र ति उस श्लोक का अर्थ बताने के लिये इस शर्त पर राजी हो गये कि इन्द्र उनका शिष्य हो जायगा शिष्य परिकर बढ़ाने का मोह वह शमन न कर सके । इन्द्र ने वह शर्त मान ली और पढ़कर एक वैसा ही श्लोक सुनाया जैसा कि इस परिच्छेद के प्रारम्भ मे दिया हुआ है । गौतम उस श्लोक को सुनकर असमजसमे पड़ गये। वह समझ न सके कि छ द्रव्य क्या हैं ? पंचास्तिकाय से क्या मतलब है ? तत्वों से क्या भाव है ? और छै लेश्यायें कौन सी हैं ? वह अन्यथा अर्थ बताने का भी साहस न कर सके। उन्होंने सोचा कि इससे क्या ? इसके गुरु से ही वाद करके इस श्लोक का अर्थ प्रगट करना चाहिये । बस, वह झट उठे और अपने दोनों भाइयो और शिष्यों के साथ विद्यार्थी वेषधारी इन्द्रके साथ चल दिये।
उस समय भ० महावीर का समवशरण राजगृह के निकट विपुलाचल पर्वत पर आया हुआ था । इन्द्रभूति भाइयों और शिष्यों के अनुरोध से वहाँ तक चले आये ! समवशरण के द्वार पर मानस्थग्भ को देखते ही उसका मान और गर्व मन्द पड़ गया। समवशरण में प्रवेश करके ज्यों ही उन्होंने त्रिलोकवन्दनीय भ० महावीर की परम वीतराग-मुद्रा के दर्शन किये, त्यों ही उनका हृदय नम्रीभूत होगया। निर्गन्थ योगिराद की योगमय आत्मविभति को देखकर वह प्रभावित हो गये। वह