________________
( ११३ ) नाथ ! उसे ज्ञान नेत्र दीजिये-धर्मामृत का पान कराके उसे सुखी बनाइये ।" ___इन्द्र यह स्तुति करके देव कोठे मे बैठ गया और भव्यचातकजन धर्मामत वर्षों की प्रतीक्षा करने लगे। एक पहर बीता दो पहर बीते । प्रतीक्षा में तीसरा पहर भी बीत गया, परन्तु प्रभू । की वाणी नहीं खिरी । इन्द्र ने विचारा, 'यह क्या कारण है जो तीर्थकर का धर्मोपदेश नहीं हो रहा है ? समवशरण मे अनेक निम्रन्थ मुनिराज मौजद थे--कतिपय अङ्ग ज्ञानी भी उनमे थेक्या वह भगवान् की वाणी को स्मृति में धारण करने की क्षमता नहीं रखते थे ?-क्या कारण है ?" इन्द्र सोचने लगा। अपने विशेष ज्ञान से उस ने जाना कि भगवान के प्रमुख गणधर ब्राह्मण इन्द्रमति गौतम होंगे। वह इस समय मिथ्याष्टि हैं-पशु होमकर यज्ञ करने में निरत हैं-उसे ही भगवान के समागम में लाना चाहिये, जिससे लोक का उपकार हो । इन्द्र ने जो सोचा वही किया । इन्द्रभूति गौतम कैसे भगवान के धर्म में दीक्षित हुये, यह आगे के परिच्छेद में प्रिय पाठक, पढ़िये ! हॉ. उनके निमित्त से भ० महावीर ने धर्मचक्र प्रवर्तन कियाअपने पुनीत धर्मतीर्थ की स्थापना की! ऐसे अनुपम धर्मतीर्थ की कि जो सर्वथा विलक्षण होते हुये भी लोकोपकारी था । स्वामी समन्तभद्रजी कहते हैं कि "सर्वज्ञत्व, वीतरागत्वादिक बहुगुणरूपी सम्पत्ति से न्यून, तथापि मधुर वचनों की रचना से युक्त मनोज्ञ, ऐसा पर का मत है, परन्तु आप का मत (धर्मोपदेश ) सम्यक् प्रकार से भव्य प्राणियों को कल्याण का कर्ता है और नेगमादि नयों व सप्तभंगों से युक्त समन्तभद्र है।"
'बहुगुण संपद सकलं परमतमपि मधुर वचन विन्यासकलम् नय भक्त्यवतं सकल तव देव ! मत समन्तभद् सकलं"