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समझो और उनके जीवन को भी सुखी बनाओ । उन्होंने अपने निर्मल ज्ञान और अमित दया को मनुष्यों तक ही सीमित नहीं रक्खा था । उनकी विशेषता यह थी कि नीव मात्र उनकी दृष्टि में एक समान थे ! फिर मनुष्यों की तो बात ही क्या ? ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र सब ही एक 'मनुष्य कोठे' में समान भाव से पारस्परिक विद्वेष को भूल कर एक साथ बैठ कर भगवान के हितोपदेश को सुनते थे। भगवान् के महान व्यक्तित्व का ऐसा प्रभाव था कि मनुष्यों की तो बात क्या, हिंसक पशु भी अपनी हिंसकवत्ति भूल गये थे-प्रतिद्वन्दी पशुगण जैसे सिंह और वकरी पास-पास बैठे हुये सुख-शान्ति भोग रहे थे । अमित अहिंसा दया वहॉ मूर्तिमान् हो नाच रही थी । विश्वप्रेम और विश्वसेवा धर्म की पुण्य धारा वहाँ वह रही थी -- समता, क्षमा और दया की सहस्र धाराओं में निमग्न सारे ही जीव आनन्द रेलियां मना रहे थे । यक्षों के कंधों पर रक्खे हुये रत्नजटित 'धर्मचक्र' सहस्र रश्मियों से मानो "धर्मप्रकाश" ही फैला रहे थे और भगवान् की निकटता को पाकर 'अशोक' वृक्ष अपना शोक ही नहीं भूला था, बल्कि उसने सारे जगत् को अशोक बनाने की क्षमता पा ली थी। तीन छत्रों, चमरों और प्रभामण्डल से मंडित प्रभु महावीर उस समय साक्षात् धर्मराजा चने हुये थे- धर्म चक्रवर्ती हुये थे वह ।
इन्द्र ने भक्तिपूर्वक भ० महावीर को नमस्कार किया और उनके अनन्त गुणों की स्तुति उन गुणों को प्राप्त करने के लिये करने लगा | वह बोला, 'हे देव ! आप विलक्षण लक्ष्मी से भूपित होने पर भी निर्मन्यराज है । हे प्रभू 1 आज हमारा जीवन सफल हुआ है - आपके दर्शन पाकर हमे कृतार्थ हुये हैं । हे दया सिन्धु ! देखिये दुनिया दुख दावानल में बुरी तरह जल रही है - श्रज्ञान का परदा उसकी आँखों पर पड़ा हुआ
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