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( ग )
गणधर महाराज भी उसको सर्वाङ्गरूपेण लिखने मे असमर्थ रहे | किन्तु मानव को अपने समय के मानव से विशेष सम्पर्क रहता है - वह पुरातन मानव को भी अपने मतिज्ञान के आधुनिक दर्पण में देखने का प्रयास करता है । इस काल मे पहले पहले तो लोगो ने भ० महावीर की ओर दृष्टिपात ही नहीं किया | उनको एक कल्पित व्यक्ति माना । उपरान्त गौतम बुद्ध और वह एक हैं - ऐसी भ्रान्त धारणा भी किन्हीं विद्वानों की रही । ऐसी ही मिथ्या धारणाओं का निरसन करने के लिये यह और भी आवश्यक हुआ कि प्रस्तुत विषय पर प्रामाणिक साहित्य सिरजा जावे । तदनुसार साहित्य सिरजा भी गया । प्रस्तुत प्रयास भी उस दिशा मे एक प्रयोग है - सफल या असफल, यह पाठक जाने | इसको पढ़कर पाठकगण जानेगे कि भ० महावीर वर्द्धमान अवश्य ही एक महापुरुष हुये, जो विश्वकी विभूति थे । वे जैनधर्म के संस्थापक नहीं थे, उसके अन्तिम तीर्थकर थे । इस कल्पकाल मे जैनधर्म के संस्थापक श्री ऋषभदेव थे । ये क्षत्रिय रत्न केवल किसी सम्प्रदाय विशेष के आराध्य रहे हों, यह बात भी नहीं । वे तो लोक के थे - लोक के लिये उन्होंने सर्वस्व का त्याग किया और सत्य- सर्वस्व को पाकर उसको उन्होंने सब में बांट दिया । तब वह भला किसी सीमा या परिधि में कैसे बंधे रहते ? वह महान् थे । अवश्य ही म० गौतम बुद्ध के समकालीन थे, परन्तु उनसे भिन्न थे । स्वयं म० गौतमबुद्ध ने उनकी महानता का उल्लेख निम्न प्रकार किया था:
विहरामि गिज्मकूटे
" एक मिदाहं, महानाम, समयं राजगद्दे
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पछते । तेन खो पन समयेन संबहुला निगराठा इसिगिलियस्से कालसिलायं उन्मत्थका होन्ति श्रासन परिक्खित्ता, श्रीपक्कमिका दुक्खा तिप्पा कटुका वेदना वेदयन्ति । अथ खो हैं, महानाम, लायरह समयं पटिसलाणा वुहितो येन इसिगिति पस्सम काणसिला येन ते