________________
(घ
)
विगएठातेन उपसंकमिम् । उणसंकमित्वा ते निगएठे एउदवोचमः किन्नु तुम्हे श्रावसो निगएठा टमटका घासनपटिक्खित्ता, प्रोपए.. मिका दुक्खा सिप्पा कट का वेदना वेदिययाति । एवं वत्ते, महानाम, ते निगएठा मं एतदवोत्र, निगएठो, श्रावमो नाठपुत्तो सम्बन, सम्बदस्सावी अपरिमेसं ज्ञान दस्सन परिजानातिः परसो मे तितो च सुत्तस्स च जागरस्स च सतत समितं ज्ञानदस्मन पपचुपतितिः, सो एवं श्राहः अस्यि खो वो निगराठा पूल्ये पापं कम्म कतं, तं इमाय कटुकाय दुक्करिफारिकाय निजरेय यं पनेस्य एतरहि कायेन संवता, वाचाय संवता, मनमा संवुसा तं धायति पापस्म कम्मरस अकरणं, इति पुराणान कम्मानं तपसा व्यन्तिभावा मवानं फम्मानं प्रकरणा प्रायति अनवत्सवो, प्रायति धनवस्सवा कम्मश्खयो, कम्मयस्त्रया दुक्खक्खयो, दुक्सक्खया वेदनाक्खयो वेदनाक्खया सव्वं दुल्सं निजिएणं भविस्सति तं च पन् अम्हाकं रुच्चति व स्वमति च तेन च श्राम्हा अत्तमना ति"
-मज्झिमनिकाय, PTS., I, PP.92-93 इसका भावार्थ यह है कि म० बुद्ध कहते हैं. "हे महानाम ! मैं एक समय राजगृह में गृद्धकूट नामक पर्वत पर विहार कर रहा था। उसी समय ऋपिगिरि के पास काल शिला (नामक पर्वत) पर बहुत से निर्ग्रन्थ (जैन मुनि) आसन छोड़ उपक्रम कर रहे थे और तीव्र तपस्या में प्रवृत्त थे। हे महानाम ! मैं सायकाल के समय उन निप्रन्यों के पास गया और उनसे वोला, 'अहो निम्रन्थ ! तुम आसन छोड़ उपक्रम कर क्यों ऐसी घोर तपस्या की वेदना का अनुभव कर रहे हो ?' हे महानाम ! जब मैं ने उनसे ऐसा कहा तव वे निम्रन्थ इस प्रकार वोले, 'अहो, निग्रंन्य ज्ञासपुत्र (महावीर ) सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हैं, वे अशेष ज्ञान और दर्शन के ज्ञाता है। हमारे चलते, ठहरते, सोते, जागते समस्त अवस्थाओं में सदेष उनका ज्ञान और दर्शन