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ही वह पूर्णता की ओर घढ़ता है - वह परम पद के निकट पहुँचता है । तब वह उतना अधिक ही लोक हितकर । जाता है । जो स्वयं मलिन है - जिसको अन्तःकरण स्वच्छ नहीं है, वह भला दूसरे को कैसे शुद्ध और पवित्र मन बना सकता है ? कोयले से दूसरा कोयला उज्वल नहीं हो जाता ! इसी लिये भ० महावीर साधना मे लीन होकर जीवन के सब ही पहनओं का प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त कर रहे थे । वह अपनी आत्मा को पूर्ण - सर्वज्ञ और सर्वदर्शी देखना चाहते थे, क्योंकि उनके सम्मुख लोक कल्याण का महती 'मिशन' था। वह मूक भाषा से निवृत्ति की उपासना कर रहे थे और समभावों से प्रकृति की रीतियों का अच्छे बुरे व्यवहार का अनुभव कर रहें थे । जैन शास्त्रों में भः सहावीर की दृढ़ और चारित्र निर्मलता की द्योतक कितनी हो वटनाओं का उपसर्गों का वर्णन है । पाठक, उनमें से कुछ को आगे पढ़िये और देखिये, निवृत्ति मार्ग मे किस सहन शीलता और साहस से आगे कदम बढ़ाया जाता है !
एक समय विहार करते हुये भगवान् उज्जयनी नगरी मे पहुँचे और वहां के प्रतिमुक्तक नामक स्मशानभूमि मे रात्रि के समय प्रतिमायोग धारण करके खड़े हो गये । उस समय उज्जयनी पशुबलि प्रथा का केन्द्र बन रही थी महाकाल की पूजा वहाँ होती थी । भव नामक रुद्र पुरुष वहाँ आया- भगवान् का शान्ति स्वरूप उसी तरह उसे असह्य हुआ जिस तरह अग्नि को जल ! पूर्व बैर के संस्कार उसके हृदय मे राख से ढके हुये अंगारे की तरह धधक रहे थे । वाह्य निमित्त की हवा लगते ही वह प्रज्वलित हो गये । रुद्र अनेक विद्याओं का जानकार था - उसने योगिराट् महावीर को कष्ट देने के लिए किसी विद्या को उठा न रक्खा । साधारण मनुष्य उसके क्रूर कोपके सामने टिक नहीं सकता