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( १०२ ) था, परन्तु धीरवीर सहावीर नानी थे- उनका मोहनीय कर्म क्षीण हो रहा था-हृदय में उनके विवेक था-समतारस से वह ओत प्रोत था । उस उपसर्ग का-उन कठोर प्रहारों का उन पर कुछ भी असर न हुआ। मोहनीय कर्म को क्षीणता के कारण वेदनीय भी निस्तेज हो गया। साधारण मनुष्य की विमुग्ध दृष्टि उनमे अतुल आत्मवेदना का अनुभव करती परन्तु महावीर तो विजयी वीर की तरह योग मार्ग में आगे बढ़ रहे थे शारीरिक कष्ट और प्रलोभन उनके निकट नगण्य थे । भव रुद्र ने उनकी निस्पहता और समता देखी। वह अवाक हो रह गया। उसकी क्रूरता काफर हो गई ! वह भगवान् के चरणों मे नतमस्तक हुआ और उनको 'अतिवीर' कहकर उसने जयघोष किया ! अहिंसा का महत्व उसने हृदयंगम कर लिया । पशुओं को बलि चढ़ाने की क्रूरता और निस्सारता उसको जंच गई लोक ने भी तव अपनी गलती देखी!
नित्सन्देह भ० महावीर पर इस समय बड़े २ दैहिक उपसर्ग आये थे-वे उपसर्ग इतने भयङ्कर थे कि जिनका वर्णन पढ़ते ही हमारे रोंगटे खड़े हो जाते और दिल कॉपने लगता है। किन्तु भगवान के उत्कट आत्मवल के सामने वे उपसर्ग उसी तरह फीके पड़ गये थे, जिस तरह सूर्य का प्रकाश होने पर चन्द्र-विम्ब फीका पड़ जाता है । भगवान के अनन्त तेज और प्रभा के सम्मुख वे उपसर्गहीनप्रभ हो गये । उल्टे उनकी प्रतिक्रिया में भगवान् का आत्मतेज और अधिक प्रकाशमान हुआ था।
दि० जैन शास्त्रों में उपयुक्त उपसर्ग का ही उल्लेख है, परन्तु श्वेताम्वरीय शास्त्रों मे और भी कई उपसर्गों का वर्णन मिलता है। भगवान् की योगविधायक निर्मलता और चारित्रवर्द्धक दृढ़ता के दर्शन कराने के लिए, पाठक उनमें से कुछ का हाल आगे पढ़िये।