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________________ (११) विविध उपसर्ग:विजय। निरपराध निर महामुनि तिनको दुष्ट लोग मित्र मार; कोई खैच खम्भ से बांधे, कोई पावक में परजाएँ। तहां कोप नहीं करें, कदाचित पूर्व कर्म विचार, समरथ होय सहें बध बन्धन, ते गुरु सदा सहाय हमारे ॥ -कविवर भधरदास जी, प्रवृत्ति और नित्ति जीवनोत्कर्ष के दो मार्ग हैं । प्रवृत्ति से मनुष्य की ससार-स्थिति बढ़ती है-शुभाशुभ कर्मों का बन्ध उसमें होता है। किन्तु साधारण मनुष्य उसका सहारा लेकर निवृत्ति मार्ग की ओर बढ़ता है। निर्वत्ति मे कमां की निर्जरा है--ससार की कमजोरियों को जीत कर उस पर विजय पाने का सुअवसर है। परन्तु यह मार्ग है प्रगटत कठिन और दुष्कर । साधारण मनुष्य वासना का त्यागी एक दम नहीं हो जाता-उसे अपनी प्रवृत्ति नीरस धर्ममयी बनानी पड़ती है, तभी वह नित्ति मार्ग का पर्यटक बनता है। पाठक पढ़ चके हैं कि भ० महावीर ने अपने पहले कई भवों से प्रवृत्ति को सुधारना प्रारम्भ कर दिया था। अपनी कौमारावस्था में ही उन्होंने श्रावकों के व्रतों का अभ्यास किया था। वह साहसी वीर थे-भरी जवानी में मुनि हुये और नित्ति मार्ग में साधनायें करने लगे। वह जानते थे कि जब तक मनुष्य पूर्णता को प्राप्त नहीं होता-कृत कृत्व नहीं हो जाता तब तक न वह अपना भला कर पाता है और न दूसरों का । आत्मा जितने अंशों में अपने स्वभाव को प्राप्त करता है, उतना
SR No.010164
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Parishad Publishing House Delhi
PublisherJain Parishad Publishing House Delhi
Publication Year1951
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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