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(१०) प्रतिष्टापना समिति-एकान्त हरित व सकाय रहित स्थान
मे मल मूत्र क्षेपण करना। (११-१५) पांचों इन्द्रियों के विषयों का निरोध करना। (१६) सामायिक-जीवन-मरण, संयोग-वियोग, शत्रु-मित्र,
सुख-दुख, भूख-प्यास आदि बाधाओं मे रागद्वेष रहित
समभाव रखकर ध्यान करना। (१७) चनर्विशतिस्तव ऋषभादि तीर्थकरों की स्तुति करना । (१८) वन्दना-देव, गुरु, शास्त्र को नमस्कार करना । (१६) प्रतिक्रमण-दोष को शोधना और प्रगट करना। (२०) प्रत्याख्यान-अयोग्य के त्यागका नियम लेना,व्रत पालना। (२१) कायोत्सर्ग--एक नियत काल के लिये देह से ममत्व त्याग
कर खड़े होना। (२२) केशलोंच-नियत काल मे उपवास पूर्वक अपने हाथ से
वालो का उखाड़ना। (२३) अचेलक-वस्त्रादि से शरीर नहीं ढकना। (२४) अस्नान-स्नान-अञ्जनादि का त्याग करना। (२५) क्षितिशयन--शुद्ध एकान्त स्थान में एक करवट से लेटना। (२६) अदन्तधावन - दतौन आदि नहीं करना । (२७) स्थित भोजन-अपनी अंजली मे समपाद खड़े होकर
भोजन करना, और (२८) एक भक्त- सूर्य के उदय और अस्तकाल की तीन घड़ी
समय छोड़कर एक बार भोजन करना ।
उपयुक्त अट्ठाईस मूल गणों को पालना एक साधु के लिये अनिवार्य है। साधु अध्यात्मवाद का साधक है-उसे साधना द्वारा अपने गप्त आत्मवैभव को प्रकाशित करना है। हीरे की कीमत सान पर चढ़ जाने के बाद ही अंकती है-तभी उसमें चमक आती है। साधु भी साधना द्वारा चमकता है और लोक पूज्य