________________
( ६० )
जैन श्रमण का दैनिक जीवन साधारण मनुष्य को बड़ा ही कठिनसाध्य और अव्यवहार्य जँचता है, परन्तु उस श्रमण को वही बड़ा प्यारा होता है । इस का कारण दोनों का दृष्टिभेद है । गहस्थ की दृष्टि विकार और मोह से अनुरंजित होती है-बह योग-विराग की वातों को क्या समझे ? उसकी तराज ममता है - विकार है । इसीलिये वह योगी के जीवन को अव्यवहार्य मानता है । योगी अपने जीवन को ममता से परे उठा लेगया है । उसे मोह और विकार नहीं सताते - देह की ममता भी उसे नहीं होती । वह खुशी वखुशी साधु जीवन की कठिनाइयों को सहन करने मे रस लेता है । इसीलिये वह अन्त में आत्म विजयी वीर बनता है । जैनधर्म में इस वैज्ञानिक सिद्धान्त को लक्ष्य करके ही साधु जीवन के लिये अट्ठाईस मूल गुण आवश्यक बताये गये हैं— उनको धारण किये बिना कोई भी मनुष्य साधु नहीं हो पाता । वे यह हैं.
(१) अहिंसा महाव्रत - पूर्णत हिंसा का त्या " ।
सत्य धर्म का पालन ।
I
अस्तेय ब्रह्मचर्य
"3
(२) सत्य (३) अस्तेय (४) ब्रह्मचर्य
अपरिग्रह
1
"" 33
(५)) अपरिग्रह, (६) ईर्यासमिति - प्रयोजनवश निर्जीव मार्ग से चार हाथ ज़मीन देखकर चलना ।
"
-
"
"
"
"
"}
33 31
37 ""
}
(७) भाषा समिति - स्वपर कल्याणकारी हितमित वचन बोलना । (=) एपा समिति - समभाव से विना निमंत्रण स्वीकार किये भिक्षा वेला पर शुद्ध आहार ग्रहण करना ।
(1) प्रदान निक्षेपण समिति - ज्ञानोपकरणादि - पुस्तकादि को देखभाल कर धरना उठाना ।