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अभिवन्दना करने और उनके अद्वितीय निश्चय को सराहने के लिये स्वर्गलोक के विरक्त परिणामी लौकान्तिक देव भी कुण्डल - र आये थे, यह जैनशास्त्र बताते हैं । यह है भी स्वाभाविक - जिसे जो वस्तु प्यारी है और जिससे उसकी तृप्ति होती है, उसके निकट वह स्वतः ही पहुँच जाता है । लौकान्तिक देवगण विरागी आत्मानुभवी होते हैं । तीर्थङ्कर के महावैराग्य और श्रेष्ठ परिणाम विशुद्धि का रसास्वादन करने के लिये वे कुण्डलपुर में आये और नतमस्तक हो बोले कि "स्वामिन् ! मोहरूपी कीचड़ में फंसे हुये भव्य जीवों को आपही हस्तावलम्वन देकर बाहर निकालेंगे, क्योंकि आप धर्मतीर्थ के प्रवर्ताने वाले हैं । इसलिये हे गुणसमुद्र | आपको नमस्कार है ।" इस प्रकार स्तुति करके लौकान्तिकदेव देवालय को लौट गये ।
उपरान्त देवों और मनुष्यों ने मिलकर भगवान् का तपकल्याणक महोत्सव मनाया। युवक महावीर ने उस समय अपनी सारी वस्तुये दान करदीं - अपनी विशाल सम्पत्ति याचकों मे बांट दी। बाद में, वह श्रेष्ठ रत्नमई 'चन्द्रप्रभा' नामक पालकी पर आरूढ़ हुये और भव्यजनों के तुमुल जयनाद के बीच वह कुण्डलपुर के बाहर निकले । नायखंडवन अथवा ज्ञातखंडवन उद्यान मे वे पहुँचे और पालकी से उतर पड़े। वहाँ एक निर्मल स्फटिकमणि का शिलासन था, जिससे सटा हुआ अशोक वृक्ष लहलहा रहा था । राजकुमार महावीर ने सर्व वस्त्राभूषणों का त्याग कर के यथाजात शिशुवेष को धारण किया और वह उस अशोकवृक्ष के नीचे शिलासन पर उत्तर दिशा को मुख करके विराज गये। उन्होंने 'सिद्धपरमेष्टियों' को नमस्कार किया और सर्व वाह्याभ्यन्तर परिग्रह - त्यागका व्रत धारण किया । उन्होंने अट्ठाईस मूलगुणों को पालन करने की महाप्रतिज्ञा की और