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मनैतिकता के निवारण में महावीर-वाणी की भूमिका
भी इस नाम-स्मरण की महत्ता को स्वीकार किया है, क्योंकि नाम स्मरण के द्वारा रागद्वेष की अवांछनीय दुर्भावनात्रों में कमी होने से पवित्र आचरण की दिशा में प्रेरित होकर मानव अंतरंग चारित्र का निर्माण कर सकता है और आत्म-कल्याण का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। अणुव्रतों का पालन :
। भगवान् महावीर ने समाज में चार संघों की स्थापना की थी-श्रावक, श्राविका, मुनि और अजिका । उपर्युक्त व्यवस्था में प्रथम दो गृहस्थाश्रम से सम्बन्धित हैं और अंतिम दो का सम्बन्ध संन्यास आश्रम से है। इस चतुः संघ के लिए भगवान् ने एक आचारसंहिता दी, जिसके प्रथम चरण में पांच व्रत हैं। गृहस्थ के लिए उन व्रतों का पालन स्थूल रूप में करने का विधान है, क्योंकि गृहस्थ की अपनी सीमाएं होती हैं, इसीलिए स्थूल रूप में उन व्रतों का पालन करना बताया गया है । उन व्रतों को अणुव्रतों की संज्ञा दी गई है । ये पांच अणुव्रत हैं-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह । इन व्रतों का जैसे-जैसे विकास होता जाता है, उनकी मर्यादाएं भी बढ़ती जाती हैं । अतः मुनि अवस्था
आने पर यही अणुव्रत-महाव्रत कहलाने लगते हैं। इन पांच व्रतों में सात व्रत और मिल जाने से वारह महाव्रत हो जाते हैं, जिनका पूर्ण पालन मुनि अवस्था में ही संभव है। गृहस्थ अपने नित्य प्रति के जीवन में आने वाले अनेक प्रसंगों-स्नान, भोजन, उद्योग धंधे, व्यापार आदि के कारण आंशिक रूप में ही (स्थूल रूप में) उन व्रतों का पालन कर पाता है, इसीलिए स्थूल रूप में पालन करने के कारण ये व्रत अणुव्रत और सम्पूर्ण रूप में पालन करने से महाव्रत कहलाते हैं । व्रतों के अतिचारों से बचे:
कभी-कभी मनुष्य प्रमाद के कारण अणुव्रतों का पालन भी निर्दोष रूप में नहीं कर पाता और व्रतों की कठिनाई को सरल बनाने के हेतु उनसे बच निकलने का रास्ता निकालने का प्रयत्न करता है और उनमें कोई न कोई छिद्र (दोष) निकाल लेता है। ऐसे छिद्रों या दोषों से बचने के लिए भी सावधान किया गया है । इन दोषों का नाम व्रतों की भापा में है 'अतिचार । व्रत-पालन में इन अतिचारों से भी दूर रहने का विधान किया गया है। अतिचार सहित उन अणुव्रतों का विश्लेषण निम्नलिखित रूप में किया जाता है :(१) अहिंसाणुव्रत :
मन वचन काय से अतिचारों से दूर रहते हुए जीवों के हनन न करने का माम ही अहिंसाणुव्रत है । छेदन, बंधन, पीड़ा, अतिभार लादना, और पशुओं को आहार देने में त्रुटि करना-ये पांच इस व्रत के अतिचार हैं। (२) सत्याणुव्रत :
जिस वचन से किसी का अहित न हो, ऐसा वचन स्वयं बोलने और दूसरों से बुलवाने का नाम है 'सत्याणुव्रत' । मिथ्या उपदेश देना, किसी का रहस्य प्रगट करना, दूसरे की निन्दा या चुगली करना और झूठी वातें लिखना तथा किसी की धरोहर का अपहरण करना-ये पांच इस व्रत के अतिचार हैं।