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सामाजिक सदर्भ
गया है, क्योंकि अन्त में चारित्र की शुद्धता से ही श्रात्म-कल्याणं होता है । सम्यक् चारित्र की प्राप्ति के बिना सम्यक् दर्शन और सम्यक् ज्ञान भी नहीं हो सकते । सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र के समन्वय से ही जीव का उद्धार हो सकता है । उमास्वामी ने अपने 'तत्वार्थ सूत्र' के प्रारम्भ में ही यह बात कही है 'सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः' ऋत: चारित्र निर्माण ही हमारे जीवन का प्रधान लक्ष्य होना चाहिए | इसी से समाज की विषमता अनैतिकता आदि का निवारण निश्चित है |
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चारित्र के प्रभाव में ही ग्राज हमारा देश अनेक व्याधियों और कठिनाइयों से त्रस्त होकर अराजकता और शान्ति की ओर बढ़ता जा रहा है । यह चारित्र वाह्य और अंतरंग रूप में दोनों प्रकार से निर्मल बनाने की आवश्यकता है । बाह्य चारित्र की शुद्धता से ही अंतरंग चारित्र निर्मल हो सकता है । अंतरंग चारित्र श्रात्मा की स्वाभाविक परिणति का नाम | यह ग्रात्मा का स्वाभाविक रूप है किन्तु उस पर रागद्वे पादि भावनाओं के कारण ऐसा आवरण पड़ जाता है जो सहज ही नहीं हटाया जा सकता । यह कृत्रिम ग्रावरण जैसे-जैसे हटता जाता है वैसे-वैसे ग्रात्मा के उस गुण या रूप की विकृति होने लगती है । उस आवरण को जैन दर्शन में 'कर्म' अथवा सिद्धान्त रूप में 'कर्मवाद' की संज्ञा दी गई है । ये कर्म आठ प्रकार के बताए गए हैं- ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी, मोहनीय, अंतराय, वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र । इनमें भी मोहनीय कर्म का प्रावरण सबसे अधिक प्रवल है | इसलिए जब तक मोहनीय ( चारित्र मोहनीय) कर्म के प्रावरण का प्रात्यन्तिक क्षय नहीं किया जाता, तब तक ग्रात्मा के उपयोग रूप ज्ञान और दर्शन गुरणों की प्राप्ति नहीं हो सकती । इस कर्म के आवरण को हटाने के लिए हमें तपस्या का जीवन अपनाने की आवश्यकता है । तभी हमारी प्रवृत्ति भौतिकता से हटकर आध्यात्मिकता की ओर बढ़ सकती है ।
तपोमय जीवन :
गृहस्थावस्था में भी तपश्चर्या संभव है । नित्य प्रति के जीवन में मुनि दर्शन, स्वाध्याय, संयम, दान आदि कर्म करके तपोमय जीवन बनाया जा सकता है । किन्तु आज का मानव अपने जीवन की व्यस्तता के बहाने यह सामान्य दैनिक कर्म करने में भी अपनी झूठी असमर्थता बताने लगता है । ऐसे लोगों से हमारा यही कहना है कि वे जीवन की इस तथाकथित कृत्रिम व्यस्तता में कम से कम भगवान् का नाम तो स्मरण कर ही सकते हैं । किसी भी अवस्था में नाम स्मरण का भी अपना महत्त्व है । जैनाचार्यों ने इसके महत्त्व के विषय में लिखा है :
पवित्रः पवित्रो वा सुस्थितो दुःस्थितोऽपिवा । ध्यायेत् पंचनमस्कारं सर्वपापैः विमुच्यते ॥ अपवित्रः पवित्रो व सर्वावस्थां गतोऽपिवा ।
यः स्मरेत् परमात्मानं, स वाह्याभ्यंतरे शुचिः ॥
अर्थात् पवित्र या पवित्र किसी भी अवस्था में परमात्मा का नाम स्मरण करके अपने बाह्य और अंतरंग दोनों को पवित्र बना सकता है । कवीर, महात्मा तुलसीदास आदि संतों ने