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महावीर : बापू के मूल प्रेरणा-स्रोत
वेचर स्वामी के माध्यम से वापू की मां ने उन्हें तीन प्रतिज्ञायें दी, मांसाहार, मद्यपान और स्त्री-गमन । आत्म-कथा में स्वयं बापू ने लिखा है कि “मांसाहार से उनके विमुख रहने का कारण जैनधर्म का प्रभाव रहा है । गुजरात में जैन सम्प्रदाय का बड़ा जोर था । उसका प्रभाव हर जगह, हर प्रवृत्ति में पाया जाता है । इसलिए मांसाहार का जो विरोध, जैसा तिरस्कार गुजरात में जैनों तथा वैष्णवों में दिखाई देता है वैसा भारत या अन्य देशों में कहीं नहीं दिखाई देता । मैं इन्हीं संस्कारों में पला था।" गांधीजी ने उक्त तीनों प्रतिज्ञायें आजीवन बड़ी सफलतापूर्वक निभाई 11 वे अन्त तक शाकाहारी और भूतदयावादी रहे । पत्नी की कठोर वीमारी में भी बापू ने उन्हें अफ्रीका में मांस भक्षण नहीं कराया। सर्वोदयवादिता :
गांधी जी पक्के सर्वोदयवादी थे। उनका हर सिद्धान्त सर्वोदयवाद की नींव पर निर्मित था। दक्षिण अफ्रीका के प्रवास में उन्होंने रस्किन की “अन्दू दि लास्ट" पुस्तक पढ़ी जिससे वे बहुत प्रभावित हुए । बापू ने उसका हिन्दी-गुजराती अनुवाद "सर्वोदय" नाम से किया । सर्वोदय शब्द का प्रचार यहीं से प्रारम्भ हुआ है।
सर्वोदय शब्द के इतिहास पर यदि हम ध्यान दें तो हमें यह स्पष्ट होगा कि उसका सर्व प्रथम प्रयोग जैन साहित्य में हुआ है। प्रसिद्ध जैन तार्किक प्राचार्य समन्तभद्र ने भगवान महावीर की स्तुति 'युक्त्यनुशासन' में इस प्रकार की है
सर्वान्तवत्तद् गुण मुख्यकल्पं
सर्वान्तशून्यं च मिथोऽनपेक्षम् । . सर्वापदामन्तकरं निरन्तं
सर्वोदयं तीर्थ मिदं तवैव ॥ यहां 'सर्वोदय' शब्द दृष्टव्य है। सर्वोदय का तात्पर्य है-सभी की भलाई । महावीर के सिद्धान्तों में सभी की भलाई निहित है । उसमें परिश्रम और समान अवसर का भी लाभ प्रत्येक व्यक्ति के लिए सुरक्षित है । बापू को यह शब्द निश्चित ही जैनधर्म और साहित्य से प्राप्त हुआ होगा। हरिजन प्रम: -
जैन धर्म में कर्म का महत्व है, जाति का नहीं। प्रत्येक व्यक्ति का कर्म उसका उत्तराधिकारी है । जाति के बन्धन से किसी की प्रतिभा और श्रम पर कुठाराघात नहीं किया जा सकता । वापू ने महावीर के इस सिद्धान्त को अक्षरशः समझा और उसे जीवनक्षेत्र में उतारने का प्रयत्न किया । हरिजनों की परिस्थितियों के विश्लेपण का भी यही मानदण्ड उन्होंने बनाया था। हरिजन समाज के उद्धार के पीछे उनको यही मनोभूमिका थी। उसे हम 'उत्तराध्ययन सूत्र' की निम्न गाथा में देख सकते हैं
1.
आत्मकथा, पृ० ५७ ।