________________
भगवान महावीर के शाश्वत सन्देश
को श्रमणोपासक । सत्य, चौर्य और ब्रह्मचर्य के साथ पूर्व , उल्लिखित ‘अहिंसा और अपरिग्रह को मिलाकर पंच महाव्रत कहा जाता है । साधुओं के लिए इनका पूर्णरूप से पालन करना और श्रावकों के लिए स्थूलरूप से अणुव्रतों का पालन आवश्यक है। इससे जीवन-संयमित और सदाचारमय बन जाता है । यह आत्मोत्थान, समाज कल्याण एवं सुख-शान्ति प्राप्त करने का मार्ग है ।। समभाव : प्राचार में विचार में : .. जैन धर्म का मर्म समभाव में समाया हुआ है । राग, द्वाप का न होना ही समभाव है । सारी धार्मिक क्रियायें इस समभाव प्राप्ति के लिए ही की जाती हैं । प्राणी मात्र में समानता का अनुभव करना ही अहिंसा है । अपरिग्रह का सिद्धान्त भी सामाजिक विषमता को हटाने के लिए ही है। एक पास धन आदि वस्तुओं का अम्बार लग जाय और दूसरा खाने-पीने के लिए भी कष्ट उठाए इस विपमता को हटाने के लिए मूर्छा या ममत्व कों कम करना बहुत ही आवश्यक है। प्रत्येक मनुष्य के विचार भिन्न-भिन्न होते हैं । अतः विचारों का संघर्ष मिटाने के लिए भगवान महावीर ने अनेकान्त को महत्व दिया । एकान्त अाग्रह को मिथ्यात्व माना, क्योंकि प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मात्म है, अतः केवल एक दृष्टिकोण विशेप से वस्तु का पूर्णतया प्रतिपादन नहीं किया जा सकता । केवल अपना ही अाग्रह न रख कर दूसरों के विचारों व कथन में जो सत्य का अंश रहा हुआ है उसको भी जानना बहुत जरूरी है । वस्तुस्वरूप का निर्णय करने के लिए उस वस्तु के अलग-अलग दृष्टिकोण से जो जो स्वरूप है उन सवको ध्यान में लाना आवश्यक है । धर्म-सम्प्रदायों में साधारण मतभेदों को लेकर बहुत संघर्प होता रहा । अपनी ही वात या विचार सत्य है दूसरों के गलत है इस मताग्रह के कारण राग द्वेप और कटुता का बोल वाला रहा । अतः भगवान महावीर का अनेकान्त सिद्धान्त दूसरों के विचारों का भी समन्वय करना सिखाता है। यदि हम दूसरे के कथन की अपेक्षा ठीक से जान लें तो फिर संघर्ष को मौका नहीं मिलेगा।
भगवान् महावीर ने एक और क्रान्तिकारी सन्देश प्रचारित किया कि वर्ण या जाति से कोई ऊँचा या नीचा नहीं होता । गुण हो मनुष्य को ऊँचा बनाते है । ब्राह्मण जाति में जन्म लेने से कोई ऊँचा और शूद्र में जन्म लेने से नीचा वनता है इस मान्यता का विरोध किया गया । व्यक्ति और जाति के स्थान पर गुणों को महत्व दिया गया । इसीलिए हरिकेशी चांडाल जैन मुनि वनकर उच्च वर्ण वालों के लिए भी पूज्य बना। विशेषता जाति की नहीं गुणों की है।
स्त्रियों को भी भगवान् महावीर ने पुरुषों की तरह ही धार्मिक अधिकार दिए । उसे मोक्ष तक का अधिकारी माना । साधुनों की अपेक्षा साध्वियों की संख्या दूनी से अधिक थीं। इसी तरह श्रावकों से श्राविकाओं की संख्या दुगुनी थी । लाखों स्त्रियों ने धर्म की आराधना करके सद्गति पाई । आज भी साधुओं की अपेक्षा साध्वियों की संख्या अधिक है, और धर्म प्रचार में भी वे काफी अग्रगण्य और प्रयत्नशील हैं । स्त्री समाज