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जीवन; व्यक्तित्व और विचार
भगवान् महावीर ने पाप के १८ प्रकार बतलाए हैं (१) हिंसा, (२) झूठ. (३) चोरी, (४) मैथुन, (५) परिग्रह, (६) क्रोध, (७) मान, (८) माया, (e) लोभ, (१०) राग, (११) द्वेष, (१२) कल, (१३) दोपारोपण, (१४) चुगली, (१५) असंयम में रति-सुख और संयम में रति-दुख, (१६) परनिन्दा, ( १७ ) कपटपूर्ण झूठ, (१८) मिथ्यादर्शन शल्य | इन पापों से वचने का उपदेश दिया है | इससे अपनी ग्रात्मा को शान्ति मिलती ही है--पर समाज और राष्ट्र को भी बहुत लाभ मिलता है । कलह से कटुता बढ़ती है । दूसरों की चुगली करना, परनिन्दा करनाः इससे वैर बढ़ता है । ग्रपराधों से निवृत होने के लिए प्रत्येक गृहस्थ के लिए भी इन पापों से कोई भी पाप लगा हो तो प्रतिक्रमण में उसके लिए पश्चाताप किया जाता है ।
कर्म-बंध के कारण बतलाए गए हैं- मिथ्यात्व अविरति, कपाय, योग और प्रमाद 1. इनमें सबसे प्रमुख मिथ्यात्व और कपाय हैं । ग्रनादिकाल से ग्रात्मा अपने स्वरूप को भूल. चुकी है। धन कुटुम्ब आदि पर पदार्थों को अपना मान कर उन पर ममत्व धारण कर लेती है । विपय-वासनात्रों में सुख अनुभव करते हुए उनमें श्रासक्त वन जाती है । इसलिए मोक्ष मार्ग में सबसे पहला मार्ग सम्यकुदर्शन है । इससे शरीर आदि पर पदार्थों से आत्मा को भिन्न- मानने. रूप भेदविज्ञान प्रगट होता है । वस्तु स्वरूप का वास्तविक ज्ञान सम्यग्दर्शन के बिना नहीं हो सकता । श्रतः सम्यग्दर्शन के बाद सम्यकज्ञान और सम्यकचारित्र को मोक्ष मार्ग वतलाया गया है । अपने किए हुए शुभाशुभ कर्मों में से ही यह आत्मा श्रनादिकाल से संसार में परिभ्रमण कर रही | कर्म वेन्धन से मुक्त हो जाना ही स्वस्वरूप और परमात्म भाव परमानन्द की उपलब्धि है ।
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संयम और तप :
जैन धर्म में संयम और तप को बहुत प्रधानता दी गई है । इन्द्रियों और मन पर विजय प्राप्त करना संयम है और इच्छात्रों का निरोध करना ही तप है । इच्छाएं ग्राकाश के समान ग्रनन्त है । तृष्णा का कोई पार नहीं है । इच्छाएँ ही वन्धन हैं । अतः कर्म वन्धन से मुक्त होने के लिए इच्छाओं पर निरोध बहुत ही आवश्यक है ! भगवान् महावीर ने स्वयं तप, मौन और ध्यान की साधना साढ़े बारह वर्ष की । उनके द्वारा प्ररिणत ग्राभ्यंतर तप तो बहुत ही महत्वपूर्ण है । गुगीजनों और बढ़ेवूढ़ों का ग्रादर करना विनय रूप तप है । दूसरों की सेवा करना वैयावृत्य तप है । किए हुए पापों की निन्दा गर्हा करना प्रायश्चित तप है । स्वाध्याय के द्वारा ग्रात्मस्वरूप को जानना और ज्ञानंवृद्धि करना स्वाध्याय नाम का तप है । इसी तरह ध्यान और कायोत्सर्ग ग्राभ्यंतर तप हैं । जिनसे ग्रात्मा पूर्वकृत कर्मो की निर्जरा करती है व शुद्ध बनती है ।
: जैन धर्म में दस प्रकार के धर्म माने जाते हैं । उनमें चार तो चार कपायों के निरोध रूप हैं - क्षमा, सन्तोष, सरलता और नम्रता । सत्य, संयम, तप, त्याग, ब्रह्मचर्य
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र अकिंचनताये ६ और मिलाने से दस प्रकार के श्रमरण धर्म हो जाते हैं । जैन धर्म, का प्राचीन नाम श्रम धर्म ही है । मुनियों को श्रमण कहा जाता है और श्रावकों,
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