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भगवान् महावीर द्वारा प्रतिष्ठापित मूल्य
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रह गई थी और न ही मानवीयता । धर्म के नाम पर निरीह जीवों का वध तो होता ही था, शुद्र कहलाने वाले लोग भी तिरस्कार और ताड़ना के पात्र समझे जाते थे । अं श्रद्धा की चादर में व्यक्ति का ग्रात्मचिंतन और भाग्यवाद के व्यामोह में पुरुषार्थ छिप से गये थे | अध्यात्म को लोग श्रात्मा से परे की चीज समझ रहे थे । परमब्रह्म और परमात्मा के रहस्यजाल में सीधी-सादी श्रात्मा उलझकर रह गयी थी । ऐसे विषम वातावरण में महावीर ने धर्म के सही और सहज स्वरूप को उद्घाटित, व्याख्यायित और प्रतिष्ठित करने का बीड़ा उठाया । प्रकारांतर से वह ऐसी क्रांति का सूत्रपात्र था, जिसमें जड़ीभूत आस्थात्रों, मिथ्या धारणाओं और अस्वस्थ रूढ़ियों से लोहा लेने का आह्वान था । वह संघर्ष ग्रास्था, विवेक, पुरुषार्थ, श्रात्मविश्वास, निर्बंधत्व और अंतर-साम्य जैसे मानवीय मूल्यों की स्थापना का संघर्ष था ।
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२. नैतिक मूल्यों की प्रतिष्ठा के लिए मानव को विरोधी शक्तियों से सदैव जूझना पड़ा है । हम में और महावीर में अंतर यह है कि जहां महावीर ने संघर्ष किया और विजय प्राप्त की, वहां हम संघर्ष से मात्र पलायन करते रहे हैं । यदि संघर्ष किया भी है तो नितांत कृत्रिम । यही कारण है कि मानव-जीवन में आज भी वे मूल्य सही माने में प्रतिष्ठित नहीं हो पाये हैं । हमने अपनी ग्रास्था को आज तक कोई आधार नहीं दिया । हमारे विवेक पर अब भी जंग लगी हुई है । हम भाग्यार्थी पुरुषार्थ को पहिचानने का कप्ट तक नहीं करते । ग्रात्म-विश्वास तो हम कब का खो चुके हैं। आंतरिक ही नहीं, वाह्य बंधनों और प्रभावों से भी तो व्यक्तित्व को मुक्त नहीं रख पाये हैं हम । वैषम्य तो हमारे ग्रार्थिक, सामाजिक, पारिवारिक और यहां तक कि वैयक्तिक स्तर पर भी प्रड़ा बैठा है । वस्तुतः हम में संतुलित चिन्तन शक्ति और संकल्प की दृढ़ता की कमी है । दूसरे शब्दों में भी कह सकते हैं कि हम में दर्शन, ज्ञान और चारित्र्य के सम्यक्त्व का प्रभाव रहा है ।
३. तीर्थंकर महावीर का मार्क्स, गांधी, आइंस्टीन आदि विचारकों से सम्बन्ध विठाना अथवा उनकी विचारधाराओं में समानता के तत्व ढूंढना मेरी दृष्टि में समीचीन नहीं है | उक्त विचारकों ने अपने-अपने समय की परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में अपने विचार रक्वे थे । परिस्थितियों के बदलने के साथ उनके विचारों की महत्ता, मूल्यता और उपादेयता का बदलना भी स्वाभाविक है । यह आवश्यक नहीं कि उनका चिन्तन भी महावीर के चितन की तरह सार्वभौम और सनातन हो । जहां तक मानव-मानव की समानता की बात है, महावीर और अन्य चिंतकों के विचार समान ही है । पर दृष्टिकोण फिर भी अपने-अपने संदर्भों के अनुसार अलग-अलग है ।
४. आज का युग बुद्धि का युग है। विज्ञान की नूतन उपलब्धियों के बीच जिस मानव-समाज की संरचना का प्रारूप तैयार किया जा रहा है, वह यदि महावीर के चिंतन से अनुप्रेरित और सम्पादित हो, तो एक नये संघर्षहीन समाज का उदय भी सम्भव है । महावीर का दर्शन ऐसे मानव समाज की समस्त राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, पारिवारिक और वैयक्तिक प्रवृतियों का नियमन कर सकता है । हिंसा र