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परिचर्चा
ऐसे भी हैं जो सैद्धांतिक रूप में भी अपने सभी नागरिकों को समान नहीं मानते । दक्षिण अफ्रीका, रोडेशिया, और यहां तक कि पाकिस्तान जैसे देशों के संविधान भी वर्ण या धर्म के आधार पर अपने ही नागरिकों में भेद करते हैं । अंगोला, मोजम्बीक, युगाण्डा, चिली और एशिया के अनेक नव स्वतन्त्र देशों में मनुष्य का सम्मान और जीवन भयंकर, खतरों के सामने खड़ा है। इन स्थितियों में महावीर के जीव मात्र की स्वतन्त्रता के मूल्य को उपलब्ध करने में अभी पच्चीस सौ वर्ष और लग जाएं तो आश्चर्य नहीं।
३. मोटे तौर पर इन चारों चिंतकों के तत्व-चिंतन और महावीर के तत्व-चिंतन में कोई मौलिक अन्तर नहीं है । लेकिन इनका चिंतन मनुष्य तक ही सीमित है । महावीर की तरह अनन्त जीव-सृष्टि की चिन्ता इन्हें नहीं है। ये जैसे एक बड़े प्रांगन के एक कोने को ही वुहार रहे है। गांधीजी में अवश्य उस कोने के बाहर भी देखने की कुछ
आतुरता है । इसीलिए शायद वे महावीर के अधिक निकट हैं। इनमें से आइंस्टीन ने पदार्थ की विराटता के प्रत्यक्ष दर्शन किए थे। लेकिन वे मनीपी वैज्ञानिक थे। पदार्थ की विराटता के प्रत्यक्ष दर्शन की घटना से वे चमत्कृत तो हुए, महावीर की तरह अभिभूत नहीं । महावीर के ज्ञान-चक्षुत्रों के समक्ष यह घटना घटित हुई थी। इस घटना से उनका चिंतन, व्यवहार और समूचा जीवन प्रभावित हुआ । वे लोक नायक और त्रिकाल पुरुप बन गए । इसके विपरीत आइंस्टीन के लिये इसका महत्व अनुसंधान के स्तर पर था। इसलिए अनुसंधान का सन्तोप और सम्मान ही उन्हें मिला।
४. आज के सन्दर्भ अधिक जटिल हो गए हैं । वहुत सी बातों और कार्यों में परोक्षता आ गई है। दरअसल पच्चीस सौ वर्षों में अर्थशास्त्र और भूगोल वहुत बदल गये हैं । इसलिये सभी क्षेत्रों में प्रायः सभी प्रक्रियाए अनिवार्य रूप से बदली हैं। लेकिन इतना सब होने पर भी मनुप्य में कोई मौलिक अन्तर नहीं आया है । वह अब भी पच्चीस सौ वर्ष पहले की तरह ही राग-द्वीप का पुतला है-अहंकारी, स्वार्थी, दूसरे के लिये सूई की नोक के वरावर भी भूमि न देने वाला, 'भी' पर नहीं 'ही' पर ही दृष्टि रखने वाला। इसलिए महावीर की विचारधारा अब भी प्रासंगिक है । महावीर तो एक दृष्टि प्रदान करते हैं । वह दृष्टि है-दूसरे के लिये भी हाशिया छोड़ो। इस दृष्टि के अनुसार हम सभी क्षेत्रों में अपने व्यवहार को निर्धारित कर सकते हैं।
५. दूसरे के लिये हाशिया छोड़ने की बात का हमारी अनुभूति से निरन्तर साक्षात्कार हो । वह हमारी अनुभूति ही बन जाय । हम अनुभव करें कि हमारे अतिरिक्त भी पदार्थ-सत्ताएं हैं-करोड़, सौ करोड़ नहीं, अनन्त । और वे अनन्तधर्मा हैं, विराट; इतनी विराट कि उन्हें सम्पूर्णता में देख पाना हमारे लिये असम्भव है । इसलिए उनके लिए हाशिया छोड़ना उन पर दया करना नहीं है । यह उनका सहज प्राप्तव्य है । (६) डॉ० इन्दरराज वैद:
१. महावीर का आविर्भाव ऐसे समय में हुआ जव भारतीय जन-मानस में भय, अंध-विश्वास, भेदभाव, आडम्बर, और रूढ़ियों ने घर कर किया था । समाज में न नैतिकता