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भगवान महावीर द्वारा प्रतिष्ठापित मूल्य
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“गया और वे परस्पर एक-दूसरे से उलझने लगे । धर्म का सहारा लेकर वस्त्र, पूजा-पद्धति, तीर्थ एवं मन्दिरों के नाम पर वे एक-दूसरे से लड़ने लगे और अनेकांत के सिद्धान्त को भुला बैठे। आज के युग में भी यदि तीर्थों एवं मन्दिरों के झगड़े समाप्त हो जायें अथवा सहअस्तित्व की भावना से रहना सीख लें तभी हम महावीर के प्रतिष्ठापित मूल्यों का देश में प्रचार-प्रसार कर सकते हैं।
३. भगवान महावीर का समस्त तत्त्व चिंतन अहिंसा, अनेकांत और अपरिग्रह पर आधारित है । वर्ग एवं जाति हीन समाज की रचना में उन्होंने अहिंसा को प्रमुखता दी है जवकि मार्क्स, आइन्स्टीन, सात्र आदि चिन्तकों ने अहिंसा ...को उतनी प्रमुखता नहीं दी है । इनके तत्वचिंतन में पूजीवाद के विरुद्ध अधिक प्राक्रोश है तथा वहां आत्म-शुद्धि की ओर कोई लक्ष्य नहीं है.। गांधीवाद में यद्यपि आत्म-शुद्धि की अोर भी जोर दिया गया है लेकिन जीवन के प्रत्येक व्यापार में अहिंसा का कोई महत्त्व नही है। जबकि भगवान् महावीर का तत्व चिंतन ही अहिंसा की नींव पर खड़ा है।
४. आज के युग के प्रमुख मूल्य है-आर्थिक विषमता को दूर करना, सह-अस्तित्व की भावना पर जोर देना । तथा वर्ग विहीन समाज की रचना करना इन मूल्यों की प्रतिष्ठा में भगवान् महावीर की विचारधारा वदलते संदर्भो में भी उतनी ही उपयोगी है जितनी पहिले कभी थी।
५. व्यक्ति से समाज, समाज से राष्ट्र एवं राष्ट्र से विश्व बनता है। इसलिए यदि व्यक्ति स्वस्थ है तो समाज एवं राष्ट्र भी स्वस्थ है । महावीर परिनिर्वाण महोत्सव पर मेरा प्रत्येक व्यक्ति से यही निवेदन है कि वह स्वयं महावीर बनने का प्रयास करे । अहिंसा के मार्ग पर चलकर अनेकांत सिद्धान्त को जीवन में उतारे तथा सत्वेपु मैत्री गुरिणषु प्रमोदम्, क्लिष्टेपु जीवेषु कृपा परत्वं' मय जीवन का निर्माण करे ।। (५) श्री जयकुमार जलज:
१. महावीर अपने समय में जीवमात्र की स्वतन्त्रता के लिए लड़े । वास्तव में पदार्थ मात्र की स्वतन्त्रता में, चाहे वह जीव हो या अजीव, उनका विश्वास था। उनके अनुसार सभी पदार्थ अपने परिणमन या विकास के लिए स्वयं उपादान है। एक पदार्थ दूसरे पदार्थ के लिए निमित्त हो सकता है, उपादान नहीं । पदार्थो को उन्होंने अनन्त आयामी, अनन्तधर्मा माना था । वे उनकी विराटता से परिचित थे। शेष सारे मूल्यअहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह और भी जो हैं-महावीर के लिए जीव मात्र की स्वतन्त्रता को उपलब्ध कराने के साधन भर थे।
२. पच्चीस सौ वर्ष में भी हम जीव मात्र की स्वतन्त्रता को प्राप्त नही कर सके । जो भी सीमित और सतही उपलब्धि हमारो है वह सिर्फ मनुष्य के सन्दर्भ में ही है । फ्रांसीसी क्रांति और उसके बाद विभिन्न स्वतन्त्रता-आन्दोलनों के फलस्वरूप एक वहुत सतही राजनीतिक आजादी मनुष्य को मिली है । कई देश अभी भी गुलाम है। अन्य कई देशों में तथाकथित स्वतन्त्रता के बावजूद गुलामी जैसी स्थिति है । कुछ देना