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तीर्थंकर महावीर है । आत्मा को हैसियत से वह भौतिक और सामाजिक जगत् से उभर कर ऊपर उठा है । यदि हम मानव-यात्मा की अंतर्मुखता को नहीं समझ पाते, तो अपने आपको गंवा बैठते हैं।
हममें से अधिकांश जन सदा ही सांसारिक व्याप्तियों में निमग्न रहते हैं। हम अपने आपको स्वास्थ्य, धन, साजोसामान, जमीन, जायदाद आदि सांसारिक वस्तुओं में गंवा देते है । वे हम पर स्वामित्व करने लगती हैं, हम उनके स्वामी नहीं रह जाते । ये लोग अात्मघाती हैं। उपनिपदों ने इन्हें 'अात्महनो जनाः' कहा है। इस तरह हमारे देश में हमें यात्मवान बनने को कहा गया है।
___ समस्त विनानों में आत्मविज्ञान सर्वोपरि है-अध्यात्मविद्या विद्यानाम् । उपनिपद हमसे कहते हैं-यात्मानं विद्धि । शंकराचार्य ने आत्मानात्मवस्तुविवेकः अर्थात् आत्मा और अनात्मा को पहचान को यात्मिक जीवन की अनिवार्य शर्त बताया है। अपनी आत्मा पर स्वामित्व से बढ़कर दूसरी चीज संसार में नहीं है। इसीलिए विभिन्न लेखक हमसे यह कहते हैं कि असली मनुप्य वह है, जो अपनी समस्त सांसारिक वस्तुए आत्मा की महिमा को अधिगत करने में लगा दे। उपनिषद् में एक लंवे प्रकरण में बताया गया कि पति, पत्नी संपत्ति सच अपनी आत्मा को अधिगत करने के अवसर मात्र हैं-यात्मनस्तु कामाय ।
___ जो संयम द्वारा, निष्कलंक जीवन द्वारा इस स्थिति को प्राप्त कर ले, परमेष्ठी है । जो पूर्ण मुक्ति प्राप्त कर ले, वह अहत है-वह पुनर्जन्म की संभावना से,. काल के प्रभाव से पूर्णतया मुक्त है। महावीर के रूप में हमारे समक्ष ऐसे व्यक्ति का उदाहरण है, जो सांसारिक वस्तुओं को त्याग देता है, जो भौतिक बंधनों में नहीं फंसता, अपितु जो मानवश्रात्मा की आंतरिक महिमा को अधिगत कर लेता है ।
कैसे हम इस आदर्श का अनुसरण करें ? वह मार्ग क्या है जिससे हम यह आत्मसाक्षात्कार, यह आत्मजय कर सकते हैं ? तीन महान् सिद्धान्त :
हमारे धर्मग्रंथ हमें बताते हैं कि यदि हम आत्मा को जानना चाहते हैं, तो हमें श्रवण, मनन, निदिध्यान का अभ्यास करना होगा। भगवद्गीता ने इसी बात को यों कहा है-"तद् विद्धि प्ररिण पातेन परिप्रश्नेन सेवया।" इन्हीं तीन महान् सिद्धांतों को महावीर ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चरित्र' के नाम से प्रतिपादित किया है।
हममें यह विश्वास होना चाहिये, यह श्रद्धा होनी चाहिये कि सांसारिक पदार्थों से श्रेष्ठतर कुछ है । कोरी श्रद्धा से, विचारविहीन अंधश्रद्धा से काम नहीं चलेगा। हममें जान होना चाहिये--मनन । श्रद्धा की निप्पत्ति को मनन ज्ञान की निष्पत्ति में बदल देता है। किंतु कोरा सैद्धान्तिक ज्ञान काफी नहीं है !-वाक्यार्थज्ञानमात्रेण न अमृतम्- शास्त्र के शब्दार्थ मात्र जान लेने से अमरत्व नहीं मिल जाता । उन महान सिद्धान्तों को अपने जीवन में उतारना चाहिये । चारित्र बहुत जरूरी है ।