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तीर्थकर महावीर • डॉ० एस० राधाकृष्णन्
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चिन्तन का प्रक्ष बदला :
ईसा पूर्व ८०० से २०० के बीच के युग में मानव-इतिहास का अक्ष मानो बदल गया । इस अवधि में विश्व के चिंतन का अक्ष प्रकृति के अध्ययन से हटकर मानव-जीवन के चितन पर आ टिका। चीन में लायोत्से और कन्फयूशस, भारत में उपनिपदों के ऋपि, महावीर और गौतम बुद्ध, ईरान में जरतुश्त, जूडिया में पैगम्बरों की परम्परा, और यूनान में पीथागोरस, सुकरात और अफलातून-इन सवने अपना ध्यान वाह्य प्रकृति से हटाकर मनुष्य की आत्मा के अध्ययन पर केंद्रित किया। यात्मिक संग्रामों का महावीर : . मानव-जाति के इन महापुरुपों में से एक हैं महावीर। उन्हें 'जिन' अर्थात विजेता कहा गया है। उन्होंने राज्य और साम्राज्य नहीं जीते, अपितु आत्मा को जीता । सो उन्हें 'महावीर' कहा गया है--सांसारिक युद्धों का नहीं, अपितु आत्मिक संग्रामों का महावीर । तप, संयम, आत्मशुद्धि और विवेक की अनवरत प्रक्रिया से उन्होंने अपना उत्थान करके दिव्य पुरुप का पद प्राप्त कर लिया। उनका उदाहरण हमें भी आत्मविजय के उस आदर्श का अनुसरण करने को प्रेरणा देता है ।
यह देश अपने इतिहास के प्रारंभ से ही इस महान् आदर्श का कायल रहा है । मोहनजोदड़ो और हड़प्पा के जमाने से आज तक के प्रतीकों, प्रतिमाओं और पवित्र अवशेपों पर दृष्टिपात करें, तो वे हमें इस परंपरा की याद दिलाते हैं कि हमारे यहां आदर्श मानव उसे ही माना गया है, जो आत्मा की सर्वोपरिता और भौतिकतत्वों पर प्रात्मतत्व को श्रेष्ठता प्रस्थापित करे। यह अादर्श पिछली चार या पांच सहस्राद्वियों से हमारे देश के धार्मिक दिगंत पर हावी रहा है । प्रात्मवान बनें :
जिस महावाक्य के द्वारा विश्व उपनिपदों को जानता है, वह है 'तन् त्वमसि'-- तुम वह हो। इसमें आत्मा की दिव्य बनने की शक्यता का दावा किया गया है और हमें उद्बोधित किया गया है कि हम नष्ट किये जा सकने वाले इस शरीर को, मोड़े और बदले जा सकने वाले अपने मन को आत्मा समझने की भूल न करें। आत्मा प्रत्येक व्यक्ति में है, वह अगोचर है, इंद्रियातीत है। मनुष्य इस ब्रह्मांड के भंवर से छिटका हुआ छींटा नहीं