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जीवन, व्यक्तित्व और विचार
हम दर्शन, प्राणिपात, या श्रवण से प्रारम्भ करते हैं, ज्ञान, मनन, या परिप्रश्न पर पहुंचते हैं, फिर निदिध्यासन, सेवा या चारित्र पर पाते हैं। जैसा कि जैन तत्व-चितकों ने बताया है, ये अनिवार्य हैं। अहिंसा का कार्य-क्षेत्र बढ़ायें :
चारित्र यानी सदाचार के मूल तत्त्व क्या हैं ? जैन गुरु हमें विभिन्न व्रत अपनाने को कहते हैं। प्रत्येक जैन को पांच व्रत लेने पड़ते हैं-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरित्रह । सबसे महत्त्वपूर्ण व्रत है अहिंसा, यानी जीवों को कप्ट न पहुंचाने का व्रत । कई इस हद तक इसे ले जाते है कि कृपि भी छोड़ देते हैं, क्योंकि जमीन की जुताई में कई जीव कुचले जाते हैं। हिंसा से पूर्णतः विरति इस संसार में संभव नहीं है। जैसा कि महाभारत में कहा गया है-जीवो जीवस्य जीवनम् । हमसे जो आशा की जाती है, वह यह है कि अहिंसा का कार्य-क्षेत्र बढ़ायें-यत्नादल्पतरा भवेत् । हम प्रयत्न करें कि बल प्रयोग का क्षेत्र घटे, रजामंदी का क्षेत्र बढ़े। इस प्रकार अहिंसा हमारा आदर्ण है। वस्तु अनेक धर्मात्मक :
यदि अहिंसा को हम अपना आदर्श मानते हैं, तो उससे एक और चीज निप्पन्न होती है, जिसे जैनों ने अनेकांतवाद के सिद्धांत का रूप दिया है। जैन कहते हैं कि निति सत्य, केवलज्ञान-हमारा लक्ष्य है, परंतु हम तो सत्य का एक अंग ही जानते हैं। वस्तु 'अनेक धर्मात्मक' है, उसके अनेक पहलू हैं, वह जटिल हैं । लोग उसका यह या वह पहलू ही देखते हैं, परंतु उनकी दृष्टि आंशिक है, अस्थायी है, सोपाधिक है। सत्य को वही जान सकता है, जो वासनाओं से मुक्त हो।
यह विचार हममें यह दृष्टि उपजाता है कि हम जिसे ठीक समझते हैं वह गलत भी हो सकता है । यह हमें इसका एहसास कराता है कि मानवीय अनुमान अनिश्चययुक्त होते हैं । यह हमें विश्वास दिलाता है कि हमारे गहरे से गहरे विश्वास भी परिवर्तनशील और अस्थिर हो सकते हैं।
जैन चिंतक इस बारे में छह अंघों और हाथी का दृष्टांत देते हैं। एक अंधा हाथी के कान छूकर कहता है कि हाथी सूप की तरह है। दूसरा अंधा उसके पैरों का आलिंगन करता है और कहता है कि हाथी खंभे जैसा है। मगर इनमें से हर एक असलियत का एक अंग ही बता रहा है । ये अंश एक दूसरे के विरोधी नहीं हैं। उनमें परस्पर वह संबंध नहीं हैं, जो अंधकार और प्रकाश के बीच होता है, वे परस्पर उसी तरह संवद्ध है, जैसे वर्णक्रम के विभिन्न रंग परस्पर संवद्ध होते हैं । उन्हें विरोधी नहीं विपर्याय मानना चाहिये । वे सत्य के वैकल्पिक पाठ्यांक (रीडिंग) हैं।
__ आज संसार नवजन्म की वेदना में से गुजर रहा है। हमारा लक्ष्य तो 'एक विश्व' है, परंतु एकता के बजाय विभक्तता हमारे युग का लक्षण है । द्वंद्वात्मक विश्व-व्यवस्था हमें यह सोचने को प्रलोभित करती है कि यह पक्ष सत्य है और वह पक्ष असत्य है और हमें उसका खंडन करना है। असल में हमें इन्हें विकल्प मानना चाहिये, एक ही मूलभूत सत्य