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... सांस्कृतिक संदर्भः .
विभिन्न भाषानों को देन: ....... महावीर स्वामी के वाद उत्तर भारत में तो अर्द्धमागधी भापा साहित्यिक भापा - वनी । पर जव सम्राट चन्द्रगुप्त के समय में वारह वर्ष का दुर्भिक्ष पड़ा, तव दक्षिण में द्राविड़ भापाएं-कन्नड़, तमिल, तेलुगु व मलयालम-प्रचलित थीं । वे बोलियों के रूप में थीं ।.... तभी जैन धर्म वहां गया । जैन आचार्यों, कवियों, व लेखकों ने उनमें साहित्य रचना करके उन्हें सम्पन्न बनाया । कन्नड़ भाषा के आदि : प्रवर्तक तो जैन आचार्य ही थे । इन भाषाओं में विशाल जैन साहित्य आज भी सुरक्षित हैं । ...
. .. संस्कृत को अपनाना;:.
................... .. जैन समाज के इतिहास में एक युग ऐसा आया, जब जन प्राचार्यों ने संस्कृत के ... विद्वानों के सामने अपने-सिद्धान्तों व न्याय आदि की उपस्थिति करने के लिए अर्द्धमागधी के स्थान पर संस्कृत को अपनाया और उसमें विपुल साहित्य की रचना की। यह उस समय की मांग थी । उन्होंने संस्कृत कोश, व्याकरण बनाए । 'अमर कोश', 'धनञ्जय कोश' व 'जैनेन्द्र व्याकरण' आदि इस दिशा में अमर देन हैं । इससे जैन पारिभाषिक शब्द बड़ी संख्या में संस्कृत में आए.! ...... ............... .... अपनश भाषा का समुत्थान .... ....
. सातवीं शताब्दी के लगभग मध्यभारत व दूसरे भागों में अपभ्रंश ने साहित्यिक .. भापा का रूप धारण किया। यह पहले एक जनभाषा थी, वोली मात्र । चौदहवीं शताब्दी तक अपभ्रंश भारत के साहित्यिक नभमण्डल में सूर्य के समान चमक उठी । यों तो, इस साहित्य को रचने वाले विद्वान् कवि जैन, हिन्दू, बौद्ध और मुसलमान थे, पर इसमें अधिक रचनाएं करने का श्रेय जैन विद्वानों को ही है । अपभ्रंश का पद्य साहित्य ही विशेप मिला है, गद्य साहित्य नहीं । तीन शिला लेख भी मिले हैं ।.. .. . .............. .... . .
. आधुनिक भारतीय भापात्रों के अध्ययन में अपभ्रंश का अध्ययन महत्त्व पूर्ण स्थान रखता है। यह संस्कृत व हिन्दी के वीच की कड़ी है। हिन्दी की जननी भी विद्वान् इसे मानने लगे हैं । इतना ही नहीं, गुजराती, राजस्थानी व हिन्दी आदि के बहुत से शब्द .. अपभ्रश से आएं हैं । भापा विज्ञान के अध्ययन में अपभ्रश को महत्त्वपूर्ण स्थान दिलाने और भारतीय तथा योरोपीय विद्वानों का ध्यान इस ओर खींचने का श्रेय जर्मन विद्वान् हरमन जैकोबी को है । जो काम जर्मन विद्वान् मैक्समूलर ने संस्कृत को योरोपीय विद्वानों के सामने प्रस्तुत करके किया है.और भाषाओं के तुलनात्मक अध्ययन को बल दिया, वही काम जैकोवी ने प्राकृत-अपभ्रंश साहित्य को प्रकाश में लाकर किया । इससे योरोपीय भापानों के तुलनात्मक अध्ययन में बड़ी गति आई । उन्होंने 'यह काम सन् १९१४ में भारत यात्रा के समय प्रारम्भ किया और १९१८ में 'भविष्य कहा' को प्रकाशित किया। इस काम की कहानी बड़ी रोचक है । उसमें जैन साधुओं की सहायता भी उल्लेखनीय है। यद्यपि इनसे पहले कुछ जैन विद्वानों ने इस क्षेत्र में काम किया था, पर इसके बाद यह काम खूब आगे बढ़ा :: :::: :::::: : :: : गुजराती, हिन्दी, राजस्थानी यादि को देन: :.. ....
जैन विद्वान् क्षेत्र. व. काल के अनुसार काम करने में बड़े दक्ष व सतर्क थे ..जब