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भाषाओं का प्रश्न : महावीर का दृष्टिकोण
भगवान् महावीर का दृष्टिकोण :
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इसके बाद हम भगवान महावीर स्वामी के युग में श्राते हैं । उन्होंने राज-पाट छोड़ कर वैराग्य को अपनाया । उस जमाने में फैली हुई हिंसा का विरोध किया । हिंसा का प्रचार किया, विचार-सहिष्णुता के लिए अनेकान्त का उपदेश दिया । पर भाषा के क्षेत्र में भी उनका दृष्टिकोण उस युग की मान्यता के विरुद्ध था । वह बड़ा क्रांतिकारी और विद्रोहात्मक था । वे जनता के कल्याण के लिए जनता की भाषा में अपना प्रवचन, उपदेश करते थे । यह जन भाषा उस जमाने की प्राकृत या अर्द्ध मागधी भाषा थी । संस्कृत ब्राह्मणों की भाषा मानी जाती थी । साधारण जनता उसे नहीं समझपाती थी । पर भगवान महावीर के अनन्त ज्ञान की बातें जनता की भाषा में होने के कारण साधारण जनता के हृदयों पर सीधा प्रभाव डालती थी । जनता उनके उपदेशों से लाभान्वित होती थी ।
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भाषा सम्बन्धी महावीर स्वामी के कार्य का मूल्यांकन डॉ० कांति कुमार जैन ने बहुत ही सुन्दर शब्दों में किया है । वे लिखते हैं- 'भगवान महावीर के प्रतिष्ठान-विरोध (Opposition of establishment) का ही एक पक्ष है, उनकी भाषा नीति । वर्द्धमान महावीर के समय तक धर्म की भाषा संस्कृत बनी हुई थी, यद्यपि सामान्य जनता से उसका सम्बन्ध एक अरसे टूटा हुआ था । जनता जो बोली बोलती और समझती थी, पुरोहित या धर्माचार्य भी उसी में बोलता, तो उसका पाखण्ड बहुत कुछ उजागर हो जाता । शासक और शासित को पहचानने का एक उपाय यह भी है कि दोनों की भाषा एक है या अलगअलग । शोषित की भाषा में बोल कर उसका शोषण करने में शासक वर्ग को कठिनाई होती है । अतः सामान्य वर्ग से अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए ही नहीं उसका मनमानी शोषण करने के लिए भी अपनी भाषा विशिष्ट बता कर रखता है । भगवान महावीर ने यह भलीभांति जान लिया था कि जनता को धर्म के ठेकेदारों के शिकंजों से छुड़ाने के लिए उन्हें उस भाषा से भी मुक्त करना होगा जो निहित स्वार्थो की प्रतीक बन गयी है । उन्होंने अपने धार्मिक उपदेशों के लिए उस समय प्रचलित लोक भाषा को चुना । वे जनता से न तो कुछ छिपाना चाहते थे और न उससे आगे चलना चाहते थे । वे जनता को अपने साथ लेकर चलना चाहते थे । इसीलिए, महावीर ने सच्चे जन- नेता की भांति जनता को जनता की बोली में जनता के धर्म की शिक्षा दी । अच्छे जन नेता को अपनी भाषा की उच्चता का दम्भ भी छोड़ना पड़ता है । महावीर ने अपने उपदेशों के लिए अर्द्ध मागधी को चुना - अर्द्धमागधी, जो मागघी और शौरसेनी दोनों के बीच की बोली थी । "
महावीर स्वामी के अर्द्ध मागधी में प्रवचनों के की उन्नति हुई । जनता का जीवन सहज स्वतन्त्र हुआ भाषा को समृद्धि हुई ।
कारण इसमें आध्यात्मिक साहित्य और वृद्धि निरामय हुई | लोक
महावीर स्वामी के उपदेशों को अर्द्धमागधी में लिखा गया। बाद में दूसरे सैकड़ों प्राचार्यों ने इस भाषा में सव प्रकार के साहित्य की रचना की । उस युग में रचित कोशों व व्याकरणों के खोज की जरूरत है ।
१–'तीर्थंकर' वर्ष २ - अंक ७, नवम्बर, १९७२, पृ० १९२० ।