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सांस्कृतिक संदर्भ
को सत्य के अन्वेपण में लगाया है। क्या यह प्रयास लोक संस्कृति के उत्थान में परम सहायक नहीं कहा जा सकता है ?
भगवान् महावीर ने बताया-सत्य की खोज करो, उसका विश्लेषण करो, जीवन को तदुनुकूल ढांचे में ढालो । दूसरों को कष्ट मत दो, शोपण मत करो। कितना अच्छा हो, इन आदर्शो पर आज का मानव चलने लगे । यदि ऐसा हुआ तो जीवन को जर्जरित बनाने वाली समस्याएं स्वतः निर्मूल हो जाएंगी।
विश्वमैत्री का विचार भारतीय संस्कृति में उसी प्रकार समाया हुया है जिस प्रकार दूध में घी सन्निहित है। इस पावन मैत्री को साकार बनाने के लिए हिंसा तथा परिग्रह दोनों का परित्याग आवश्यक है। हिंसा विद्वेष को बढ़ाती है। जन-जन की भावना को कलुपित करती है और जन-मानस में विरोध की आग को प्रज्ज्वलित करती रहती है। इसी प्रकार परिग्रह नारकीय यातना को जन्म देता है तथा मानव को दानवत्व की अग्नि में जलने के लिए वाध्य करता है । अतः हिंसा और परिग्रह की दुष्प्रवृत्ति को दूर करने से ही विश्व मैत्री प्रतिफलित होगी। इसका प्रतिफलन ही लोक संस्कृति को जीवित रख सकेगा।
भगवान् महावीर ने कहा-हिंसा और परिग्रह ये दोनों सत्य की उपलब्धि में वाधाएं हैं । इन्हें नहीं त्यागने वाला धार्मिक नहीं बन सकता । दुःख के बाहरी उपचार से दुःख के मूल का विनाश नहीं होता।
जैसा कि पूर्व में निवेदन किया जा चुका है कि यह भारतीय संस्कृति की विशाल सरिता अनेक प्रवाहों से वेगवती वनी है। इसमें प्रार्य एवं अनार्य तत्त्वों के साथ जैन विचारों का भी पूर्ण समन्वय हुआ है । संस्कृति एक प्रवाह है, वह चलता रहे तव तक ठीक है। गति रुकने का अर्थ है उसकी मृत्यु । फिर दुर्गन्ध के अतिरिक्त और कुछ मिलने का नहीं है। प्रवाह में अनेक तत्त्व घुले-मिले रहते हैं। एक रस हो बढ़ते चले जाते हैं । भारतीय संस्कृति की यही आत्मकथा है । वह अनेक धारागों में प्रवाहित हुई है। कितने ही धर्म और दर्शन-प्रसंगों से अनुप्राणित भारत का सांस्कृतिक जीवन अपने आप में अखण्ड बना हुआ है । किसकी क्या देन है इसका निर्वाचन आज सुलभ नहीं, फिर भी सूक्ष्म दृष्टा कुछ एक तथ्यों को न पकड़ सकें ऐसी बात नहीं है। संयममूलक जैन विचारधारा का भारतीय जीवन पर स्पष्ट प्रतिविम्ब पड़ा है । व्यावहारिक जीवन वैदिक विचाराधारा से प्रवाहित है तो अन्तरंग जीवन जैन विचारों से । शताब्दियों पूर्व रचे गए एक श्लोक से इसकी पुष्टि होती है
"वैदिको व्यवहर्तव्यः कर्तव्यः पुनराहतः"
जैन विचारों का उत्स ज्ञान और क्रिया का संगम है। जानने और करने में किसी एक की उपेक्षा या अपेक्षा नहीं । ज्ञान का क्षेत्र खुला है। कर्म का सूत्र यह नहीं कि सव कुछ करो वल्कि यह है कि जो कुछ करो विवेक से करो। साधना के प्रति प्रेम है तो पूर्ण संयम करो । गृहस्थी में रहना है तो सीमा करो । इच्छा के दास मत बनो, आवश्यक