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________________ ..: .. .. ': लोक सांस्कृतिक चेतना और भगवान् महावीर २६६. शोधन की युक्ति है। वहां हिन्दू और मुसलमान का भेद नहीं है। धर्म वह शाश्वत तत्त्व है, जिसका अनुगमन करने का प्राणी मात्र को अधिकार है। साम्प्रदायिक संकीर्णता की उसमें गुंजाइश नहीं । जहां भेद दृष्टि को प्रमुखता दी जाती है. वहां साम्प्रदायिक झगड़े और संघर्ष पैदा होते हैं । चूकि विभिन्न सम्प्रदायों में भेद के बजाय अभेद-समानता के तत्त्व अधिक हैं अतः उनको मुख्यता देते हुए धर्म के जीवन-शुद्धि मूलक आदर्शों पर चलना प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है । ऐसा होने से आपसी संघर्प, विद्वप और झगड़े खड़े. ही नहीं होंगे।' - लोक संस्कृति के परम प्रचारक एवं परिपोपक, भगवान महावीर ने स्पष्ट रूप से कहा है कि जन्म से कोई ऊंचा और नीचा नहीं होता। ऊंचापन और नीचीपनं तो अपने-अपने कर्मों पर है । जो सत्कर्म करता है, अपने को पापों से बुराइयों से बचाये रखता हैं वह वास्तव में ऊचा है । जो हिंसा, असत्य, प्रादि अंसतु कर्मों में लिप्त रहता है, ऊंचे कुल में पैदा होने पर भी उसमें ऊचापन कहाँ ।।... ..... ! ....... :: ...... भारतीयं लोक-संस्कृति का यह उधोप है कि प्रात्मा ही स्वयं का उद्धारक है। और वही कर्म-मल ने स्वच्छ होकर परमात्मा बन जाता है । जैन धर्म का यह कर्मवादी सिद्धान्त लोक-संस्कृति में पूर्णरूपेण व्यवहृत है। पुरुषार्थ यहां पूर्ण आस्था से गृहीत है । परिणामस्वरूप मानव का उत्थान-पतन उसके कर्तव्यों के पालन अथवा विस्मृत करने पर आधारित है। तभी तो भगवान ने कहा है-यात्मा ही सुख दुःख का कर्ता-विकर्ता है। वह अपना मित्र है, यदि वह सत्प्रयुक्त है । वह अपना शत्रु है यदि वह दुष्प्रयुक्त है । वह स्वयं अपना तारक है, अपना उद्धारक है। दूसरा कोई नहीं। .:.:..:::..: : ... व्यवहार की भापा में गुरु अादि पूज्य जनों के प्रति जो कहा जाता है कि आप हमें तारने वाले हैं, हमारा उद्धार करने वाले हैं, वह हृदय की भक्ति और विनय का परिचायक है । वस्तुतः तारना, जीवन को ऊंचा उठाना, गिराना, विकारों में पड़ना यह तो मानव को अपनी जिम्मेदारी है । जैसा वह करेगा, पायेगा । गुरु मार्ग-दर्शक है । वह सच्ची उन्नति का मार्ग बताता है। व्यक्ति यदि उस मार्ग पर आत्मवल और उत्साह के साथ आगे बढ़ता है तो अपने जीवन विकास के लक्ष्य में सफलता पाता है । निश्चयतः जो संस्कृति मानव के मानवत्व को समझे तथा उसके परिष्कार के लिये सतत प्रयत्नशील रहे वह समीचीन संस्कृति है । भारतीय संस्कृति इसी भावभूमि पर प्रतिष्ठित है । भगवान् महावीर की वाणी का प्रत्येक अक्षर इसी लोक संस्कृति की आत्मा का परिचायक है । सव सुखी रहें, सव सम्पन्न बनें, सब अपने उत्कर्ष में संलग्न रहें और सब एक दूसरे को - अपना भाई मानें । ये मंत्र इसी संस्कृति के शाश्वत स्वर हैं । भगवान् महावीर ने सांस्कृतिक चेतना को जागृत रखने के लिए अपरिग्रह के सम्बन्ध में बहुत कुछ कहाँ । सत्य को संस्कृति का प्राधार स्तम्भ मानकर उन्होंने सचाई की स्वयं खोज की और अपने भक्तों एवं साधकों १. प्रवचन डायरी, १९५६, पृ०:४६ । :: . . . . . . . . . ....
SR No.010162
Book TitleBhagavana Mahavir Adhunik Sandarbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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