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लोक सांस्कृतिक चेतना और
भगवान् महावीर
• श्री श्रीचंद जैन
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लोक संस्कृति के प्रतिष्ठापक भगवान महावीर :
भगवान महावीर का समस्त जीवन लोक संस्कृति के संरक्षण में बीता और उन्होंने अपनी जीवन-साधना के माध्यम से लोक संस्कृति के विरवे को ऐसा सिंचित किया कि वह सुदृढ़ वन गया तथा किसी भी प्रकार का आघात इसे प्रभावित नहीं कर सका । भगवान् महावीर ने लोक भाषा को अपनाया । लोक जीवन को प्रशस्त एवं सचेतन बनाया।
भारतीय लोक संस्कृति त्याग और संयम की संस्कृति है । जीवन की सच्ची सुन्दरता और सुषमा संयताचरण में है, बाहरी सुसज्जा और वासना पूर्ति में नहीं। जिन भोगोपभोगों में लिप्त हो मानव अपने आप तक को भूल जाता है वह जरा अांखें खोलकर देखे कि वे उसके जीवन के अमर तत्त्व को किस प्रकार जीर्ण-शीर्ण और विकृत बना डालते हैं। जीवन में त्याग को जितना अधिक प्रश्रय मिलेगा, जीवन उतना ही सुखी शान्त और उद्बुद्ध होगा। भारतीय मानस में त्याग के लिए सदा से ऊंचा स्थान रहा है। यही तो कारण है कि त्याग-परायण संतों का यहां सदा आदर रहा है । यह व्यक्ति का आदर नहीं है, यह तो त्याग का समादर है। सन्तों के जीवन से आप त्याग की प्रेरणा लीजिए, जीवन को संयम की ओर उन्मुख कीजिए। इसी में जीवन की सच्ची सफलता है। माना कि प्रत्येक व्यक्ति त्याग को जीवन में सम्पूर्णतः उतार सके यह संभव नहीं पर जितना हो सके अपनी ओर से उसे अपने आपको ज्यादा त्यागी और संयमोन्मुख बनाना चाहिए । त्याग से घबराइए मत, उसे नाग मत समझिए । वह तो जीवन शुद्धि मूलक संजीवनी बूटी है । उस ओर वढ़िए, सात्विकता से पूर्ण नया जीवन, नया प्रोज, नयी कान्ति और नयी शक्ति पाइए ।' .
लोक संस्कृति में. प्राणिमात्र के कल्याण की भावना विद्यमान है। फलतः इसकी कोमल भाव-भूमि में पुष्पित धर्म सबके लिए ग्राह्य है। जाति विशेष का तो यहां प्रश्न उठता ही नहीं है । प्राचार्यों ने बार-बार कहा है-धर्म को जाति या कौम में मत बांटिये । जातियां सामाजिक सम्बन्धों के आधार पर अवस्थित हैं । धर्म जीवन परिमार्जन या आत्म १ प्राचार्य तुलसी : प्रवचन डायरी, १९५६, पृ० ४६