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लोक सांस्कृतिक चेतना और भगवान् महावीर
तालों के पीछे मत पड़ो । आवश्यकताओं को कम करो, वृत्तियों को सीमित करो । एक शब्द में ग्रावश्यकता पूर्ति के लिए सब कुछ मत करो । भारतीय जीवन पर यह जैन विचारों की अमिट छाप है । हिंसा के बिना जीवन नहीं चलता, फिर भी यथा संभव हिंसा से बचना जीवन के दैनिक व्यवहार, खान-पान से लेकर बड़े से बड़े कार्य तथा हिंसा-अहिंसा का विवेक रखना भारतीय संस्कृति का एक पहलू है, जो जैन प्रणाली का ग्राभारी है । '
भगवान् महावीर की जीवन-साधना में लोक सांस्कृतिक तत्त्व :
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लोक-संस्कृति के अभिन्न अंग हैं - गर्भ, जन्म, विवाहादि से सम्बद्ध संस्कार एवं उत्सव, शकुनापशकुन, शाप-स्वप्न, स्वप्न-विचार, उपसर्ग अतिशय प्रातिहार्य, यादि । भगवान् महावीर यों तो लोक संस्कृति के प्रमुख ग्राधार हैं ही साथ ही साथ उनके पावन जीवन की पूर्ण गाया संस्कृति के विविध भागों का एक मनोरम कल्पवृक्ष है । पं० सुमेरुचंद्र दिवाकर ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ 'तीर्थंकर' में तीर्थंकरों के गर्भ जन्म यादि के संस्कार समन्वित उत्सवों की विशद चर्चा की है । इस सन्दर्भ में ग्राचार्य श्री हस्तीमल जी महाराज द्वारा प्रणीत 'जैन धर्म का मौलिक इतिहास' प्रथम भाग ( तीर्थंकर खण्ड ) विशेष रूप से पठनीय है । 'विहार और नौकारोहरण' शीर्षक के ग्रन्तर्गत बताया गया है कि श्वेताम्बिका से बिहार कर भगवान् सुरभिपुर की ओर चले । बीच में गंगा नदी वह रही थी । ग्रतः गंगा पार करने के लिए प्रभु को नौका में बैठना पड़ा। नौका ने ज्यों ही प्रयारण किया त्योंही दाहिनी ओर से उल्लू के शब्द सुनाई दिये । उनको सुनकर नौका पर सवार खेमिल निमित्तज्ञ ने कहा- बड़ा संकट ग्राने वाला है । पर इस महापुरुष के प्रवल पुण्य से हम सब वच जायेंगे | ( पृ० ३७४) 'महावीर पुराण' में अनेक शकुनापशकुन चर्चित हैं ।
भगवान् महावीर की जननी त्रिशला के स्वप्नों की जैन शास्त्रों में विशेष चर्चा है । इसी प्रकार साधना काल में प्रभु ( भगवान् महावीर ) के दश स्वप्न विशेष रूप से बताये गए हैं । भगवान् ने निम्नस्थ स्वप्न देखे थे—२
( १ ) एक ताड़ - पिशाच को अपने हाथों पछाड़ते देखा । (२) श्वेत पुंस्कोकिल उन की सेवा में उपस्थित है । (३) विचित्र वर्ण वाला पुंस्कोकिल सामने देखा । (४) दैदीप्यमान दो रत्न मालाएं देखी ।
(५) एक श्वेत गौवर्ग सम्मुख खड़ा देखा ।
(६) विकसित पद्म-सरोवर देखा ।
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(७) अपनी भुजाओं से महासमुद्र को तैरते हुए अपने श्रापको देखा । (८) विश्व को प्रकाशित करते हुए सहस्र किरण सूर्य को देखा ।
( 8 ) वैदूर्य-वरण सी अपनी प्रांतों से मानुषोत्तर पर्वत को वेष्टित करते देखा ।
(१०) अपने आप को मेरू पर आरोहरण करते देखा ।
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प्रवचन डायरी, १९५६, पृ० १४५
२ जैनधर्म का मौलिक इतिहास, प्रथम भाग, पृ० ३६८