________________
बदलते संदर्भों में महावीर - वारणी की भूमिका
२८१
आज के विश्व में नियम स्वीकृत होते जा रहे हैं, नियन्ता तिरोहित होता जा रहा है । यही शुद्ध वैज्ञानिकता है ।
दायरों से मुक्त उन्मुक्त :
वस्तु एवं चेतन के स्वभाव को स्वतंत्र स्वीकारने के कारण जैन धर्म ने चेतन सत्तायों के क्रम-भेद को स्वीकार नहीं किया । शुद्ध चैतन्य गुण समान होने से उसकी दृष्टि में सभी व्यक्ति समान हैं। ऊंच-नीच, जाति, धर्म यादि के आधार पर व्यक्तियों का विभाजन महावीर को स्वीकार नहीं था । इसीलिए उन्होंने वर्गविहीन समाज की वात कही थी । प्रतिष्ठानों को अस्वीकृत कर वे स्वयं जन सामान्य में आकर मिल गये थे । यद्यपि उनकी इस बात को जैन धर्म को मानने वाले लोग अधिक दिनों तक नहीं निभा पाये । भारतीय समाज के ढांचे से प्रभावित हो जैन धर्म वर्गविशेप का होकर रह गया था, किन्तु ग्राधुनिक युग के बदलते संदर्भ जैन धर्म को क्रमशः आत्मसात् करते जा रहे हैं । वह दायरों से मुक्त हो रहा है । जैन धर्म अव उनका नहीं रहेगा जो परम्परा से उसे ढो रहे हैं । वह उनका होगा, जो वर्तमान में उसे जी रहे हैं ।
नारी स्वातंत्र्य :
वर्तमान युग में दो बातों का और जोर है-नारी स्वातंत्र्य श्रीर व्यक्तिवाद की प्रतिष्ठा | नारी स्वातंत्र्य के जितने प्रयत्न इस युग में हुए हैं संभवतः उससे भी अधिक पुरजोर शब्दों में नारी स्वातंत्र्य की बात महावीर ने अपने युग में कही थी । धर्म के क्षेत्र में नारी को आचार्य पद की प्रतिष्ठा देने वाले वे पहले चितक थे । जिस प्रकार पुरुष का चैतन्य अपने भविष्य का निर्माण करने की शक्ति रखता है, उसी प्रकार नारी की आत्मा भी । अतः ग्राज समान विकारों के लिए संघर्ष करती हुई नारी अपनी चेतनता की स्वतन्त्रता को प्रामाणिक कर रही है ।
व्यक्तित्व का विकास :
जैन धर्म में व्यक्तित्व का महत्व प्रारम्भ से ही स्वीकृत है । व्यक्ति जब तक अपना विकास नहीं करेगा वह समाज को कुछ नहीं दे सकता । महावीर स्वयं सत्य की पूर्णता तक पहले पहुंचे तव उन्होंने समाज को उद्बोधित किया । आज के व्यक्तिवाद में व्यक्ति भीड़ से कटकर चलना चाहता है | अपनी उपलब्धि में वह स्वयं को ही पर्याप्त मानता है । जैन धर्म की साधना, तपश्चरण की भी यही प्रक्रिया है । व्यक्तित्व के विकास के बाद सामाजिक उत्तरदायित्वों को निबाहना ।
सामाजिकता का बोध :
जैन धर्म सम्यग्दर्शन के आठ अंगों का विवेचन है । गहराई से देखें तो उनमें से प्रारम्भिक चार अंग व्यक्ति विकास के लिए हैं और अंतिम चार अंग सामाजिक दायित्वों से जुड़े हैं । जो व्यक्ति निर्भयी (निशंकित ), पूर्ण सन्तुष्ट ( नि:कांक्षित), देहगत वासनाओं से