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बदलते संदर्भो में महावीर-वाणी की भूमिका
२७६ मुझसे छोटा कोई न हो :
जैन धर्म की अहिंसा की भूमिका वर्तमान युग की अन्य समस्याओं का भी उपचार है । अपरिग्रह का सिद्धान्त इसी का विस्तार है। किन्तु अपरिग्रह को प्रायः गलत समझा गया है । अपरिग्रह का अर्थ गरीबी या साधनों का प्रभाव नहीं है । महावीर ने गरीवी को कभी स्वीकृति नही दी । वे प्रत्येक क्षेत्र में पूर्णता के पक्षधर थे । महावीर का अपरिग्रह दर्शन आज की समाजवादी चितना से काफी आगे है। इस युग के समाजवाद का अर्थ है मुझसे बड़ा कोई न हो । सब मेरे वरावर हो जायें। किसी भी सीमित साधनों और योग्यता वाले व्यक्ति अथवा देश को इस प्रकार की बराबरी लाना बड़ा मुश्किल है। महावीर के अपरिग्रही का चिन्तन है-मुझ से छोटा कोई न हो । अर्थात् मेरे पास जो कुछ भी है वह सबके लिए है । परिवार, समाज व देश के लिए है। यह सोचना व्यावहारिक हो सकता है । इससे समानता की अनुभूति की जा सकती है। केवल नारा बनकर अपरिग्रह नहीं रहेगा। वह व्यक्ति से प्रारम्भ होकर आगे बढ़ता है, जवकि समाजवाद व्यक्ति तक पहुँचता ही नहीं है । अपरिग्रह सम्पत्ति के उपभोग की सामान्य अनुभूति का नाम है, स्वामित्व का नहीं । अतः विश्व की भौतिकता उतनी भयावह नही है, उसका जिस ढंग से उपयोग हो रहा है, समस्याएं उससे उत्पन्न हुई है । अपरिग्रह की भावना एक और जहां आपस की छीना-झपटी, संचय-वृत्ति आदि को नियंत्रित कर सकती, है, दूसरी ओर भौतिकता से परे प्राध्यात्म को भी इससे बल मिलेगा। वैचारिक उदारता:
विश्व में जितने झगड़े अर्थ और भौतिकवाद को लेकर नहीं है, उतने आपस की आपसी-विचारों की तनातनी के कारण है। हर व्यक्ति अपनी बात कहने की धुन में दूसरे की कुछ सुनना ही नहीं चाहता । पहले शास्त्रों की बातों को लेकर वाद-विवाद तथा आध्यात्मिक स्तर पर मतभेद होते थे। आज के व्यक्ति के पास इन बातों के लिए समय ही नही है । रिक्त हो गया है वह शास्त्रीय ज्ञान से । किन्तु फिर भी वैचारिकमतभेद हैं । अब उनकी दिशा बदल गई है । अव सीमा-विवाद पर झगड़े है, नारों की शब्दावली पर तनातनी है, लोकतंत्र की परिभाषाओं पर गरमा-गरमी है। साहित्य के क्षेत्र में हर पढ़ने-लिखने वाला अपने मानदण्डों की स्थापनामों में लगा हुआ है । भाषा के माध्यम को लेकर लोग खेमों में विभक्त है। ऐसी स्थिति में जैन धर्म या किसी भी धर्म की भूमिका क्या हो, कहना कठिन है । किन्तु जैन धर्म के इतिहास से एक बात अवश्य सीखी जा सकती है कि उसने कभी भाषा को धार्मिक वाना नहीं पहिनाया। जिस युग में जो भापा संप्रेषण का माध्यम थी उसे उसने अपना लिया और इतिहास साक्षी है, जैन धर्म की इससे कोई हानि नहीं हुई है । अतः सम्प्रेषण के माध्यम की सहजता और सार्वजनीनता के लिए वर्तमान में किसी एक सामान्य भाषा को अपनाया • जाना बहुत जरूरी है। मतभेद में सामञ्जस्य एवं शालीनता के लिए अनेकान्तवाद का विस्तार किया जा सकता है क्योंकि बिना वैचारिक उदारता को अपनाये अहिंसा और अपरिग्रह आदि की सुरक्षा नहीं है।