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सांस्कृतिक संदर्भ
बदलते संदर्भ :
__अाज विश्व का जो स्वरूप है, सामान्यरूप में चिन्तकों को बदला हुआ नजर अाता है । समाज के मानदण्डों में परिवर्तन, मूल्यों का ह्रास, अनास्थाओं की संस्कृति, कुण्ठात्रों और संत्रासों का जीवन, अभाव और भ्रप्ट राजनीति, सम्प्रेपण का माध्यम, भापाओं का प्रश्न, भौतिकवाद के प्रति लिप्सा-संघर्ष तथा प्राप्ति के प्रति व्यर्थता का वोध आदि वर्तमान युग के बदलते संदर्भ हैं । किन्तु महावीर युग के परिप्रेक्ष्य में देखें तो यह सव परिवर्तन कुछ नया नहीं लगता । इन्हीं सव परिस्थितियों के दवाव ने ही उस समय जैन धर्म एवं बौद्ध-धर्म को व्यापकता प्रदान की थी । अन्तर केवल इतना है कि उस समय इन बदलते सन्दर्भो से समाज का एक विशिष्ट वर्ग ही प्रभावित था । सम्पन्नता और चिन्तन के बनी व्यक्तित्व ही शाश्वत मूल्यों की खोज में संलग्न थे। शेष भीड़ उनके पीछे चलती थी। किन्तु आज समाज की हरेक इकाई बदलते परिवेश का अनुभव कर रही है। आज व्यक्ति सामाजिक प्रक्रिया में भागीदार है। और वह परम्परागत आस्थाओं-मूल्यों से इतना निरप्रेक्ष्य है, हो रहा है, कि उन किन्हीं भी सार्वजनीन जीवन मूल्यों को अपनाने को तैयार हैं, जो उसे आज की विकृतियों से मुक्ति दिला सके । जैन धर्म चूंकि लोकधर्म है, व्यक्ति-विकास की उसमें प्रतिष्ठा है। अतः उसके सिद्धान्त आज के बदलते परिवेश में अधिक उपयोगी हो सकते हैं। अहिंसा की प्रतिष्ठा सर्वोपरि :
महावीर के धर्म में अहिंसा की प्रतिष्ठा सर्वोपरि है। आज तक उसकी विभिन्न व्याख्याएं और उपयोग हुए हैं। वर्तमान युग में हर व्यक्ति कहीं न कहीं क्रान्तिकारी है। क्योंकि वह आधुनिकता के दंश को तीव्रता से अनुभव कर रहा है, वह बदलना चाहता है प्रत्येक ऐसी व्यवस्था को, प्रतिष्ठा को, जो उसके दाय को उस तक नहीं पहुंचने देती। इसके लिए उसका माध्यम बनती है हिंसा, तोड़-फोड़, क्योंकि वह टुकड़ों में बंटा यही कर मकता है। लेकिन हिंसा से किए गए परिवर्तनों का स्थायित्व और प्रभाव इनसे छिपा नहीं है। समाज के प्रत्येक वर्ग पर हिंसा की काली छाया मंडरा रही है। अतः अव अहिंसा की ओर झुकाव अनिवार्य हो गया है। अभी नहीं तो कुछ और भुगतने के बाद हो जाएगा । आखिरकार व्यक्ति विकृति से अपने स्वभाव में कभी तो लौटेगा।
आज की समस्याओं के सन्दर्भ में 'जीवों को मारना', 'मांस न खाना', आदि परिभापानों वाली अहिंसा बहुत छोटी पड़ेगी। क्योंकि आज तो हिंसा ने अनेक रूप धारण कर लिए हैं । परायापन इतना बढ़ गया है कि शत्रु के दर्शन किए बिना ही हम हिंसा करते रहते हैं। अतः हमें फिर महावीर की अहिंसा के चिंतन में लौटना पड़ेगा। उनकी अहिंसा थी—'दूसरे' को तिरोहित करने की, मिटा देने की । कोई दुःखी है तो 'मैं' हूं और सुखी है तो 'मैं' हूं। अपनत्व का इतना विस्तार ही अहंकार और ईष्या के अस्तित्व की जड़े हिला सकता है, जो हिंसा के मूल कारण हैं। जैन धर्म में इसीलिए 'स्व' को जानने पर इतना बल दिया गया है । आत्मज्ञान का विस्तार होने पर अपनी ही हिंसा और अपना ही अहित कौन करना चाहेगा?