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वर्तमान में भगवान महावीर के तत्त्व-चिन्तन की सार्थकता
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चार शिक्षाव्रतों में आत्मा के परिष्कार के लिए कुछ अनुष्ठानों का विधान है। नवां सामाजिक व्रत समता की आराधना पर, दसवां संयम पर, ग्यारहवां तपस्या पर और बारहवां सुपात्रदान पर बल देता है।
इन बारह व्रतों की साधना के अलावा श्रावक के लिए पन्द्रह कर्मादान भी वजित हैं, अर्थात् उसे ऐसे व्यापार नहीं करने चाहिए जिनमें हिंसा की मात्रा अधिक हो, या जो समाज-विरोधी तत्त्वों का पोपण करते हों । उदाहरणतः चोरों-डाकुओं या वैश्याओं को नियुक्त कर उन्हें अपनी आय का साधन नहीं बनाना चाहिये ।
इस व्रत-विधान को देखकर यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि महावीर ने एक नवीन और आदर्श समाज-रचना का मार्ग प्रस्तुत किया, जिसका प्राधार तो आध्यात्मिक जीवन जीना है पर जो मार्क्स के समाजवादी लक्ष्य से भिन्न नहीं है। । ..
ईश्वर का जनतंत्रीय स्वरूप : . ईश्वर के सम्बन्ध में जो जैन-विचारधारा है, वह भी आज की जनतंत्रात्मक और
आत्मस्वातन्त्र्य की विचारवारा के अनुकूल है। महावीर के समय का समाज बहदेवोपासना और व्यर्थ के कर्मकाण्ड से बंधा हुआ था । उसके जीवन और भाग्य को नियंत्रित करती थी कोई परोक्ष अलौकिक सत्ता। महावीर ने ईश्वर के इस संचालक-रूप का तीव्रता के साथ खण्डन कर इस बात पर जोर दिया कि व्यक्ति स्वयं अपने भाग्य का निर्माता है। उसके जीवन को नियंत्रित करते हैं उसके द्वारा किये गये कार्य। इसे उन्होंने 'कर्म' कह कर पुकारा । वह स्वयं कृत कर्मो के द्वारा ही अच्छे या बुरे फल भोगता है। इस विचार ने नैराश्यपूर्ण असहाय जीवन में आशा, आस्था और पुरुपार्थ का आलोक विखेरा और व्यक्ति स्वयं अपने पैरों पर खड़ा हो कर कर्मण्य बना।
ईश्वर के सम्बन्ध में जो दूसरी मौलिक मान्यता जैन दर्शन की है, वह भी कम महत्व की नहीं । ईश्वर एक नहीं, अनेक हैं । प्रत्येक साधक अपनी आत्मा को जीत कर, चरम साधना के द्वारा ईश्वरत्वं की अवस्था को प्राप्त कर सकता है । मानव-जीवन की सर्वोच्च उत्थान-रेखा ही ईश्वरत्व की प्राप्ति है । इस विचार-धारा ने समाज में व्याप्त पाखण्ड, अन्ध श्रद्धा और कर्मकाण्ड को दूर कर स्वस्थ जीवन-साधना या आत्म-साधना का मार्ग प्रशस्त किया । आज की शब्दावली में कहा जा सकता है कि ईश्वर के एकाधिकार को समाप्त कर महावीर की विचारधारा ने उसे जनतंत्रीय पद्धति के अनुरूप विकेन्द्रित कर सबके लिए प्राप्य बना दिया- शर्त रही जीवन की सरलता, शुद्धता और मन की दृढ़ता । जिस प्रकार राजनैतिक अधिकारों की प्राप्ति आज प्रत्येक नागरिक के लिए सुगम है, उसी प्रकार ये आध्यात्मिक अधिकार भी उसे सहज प्राप्त हो गये हैं । शूद्रों का और पतित समझी जाने वाली नारी-जाति का समुद्धार करके भी महावीर ने समाज-देह को पुष्ट किया । आध्यात्मिक उत्थान की चरम सीमा को स्पर्श करने का मार्ग भी उन्होंने सबके लिए खोल दिया-चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, चाहे वह शूद्र हो, या चाहे और कोई ।